लघुकथा/कारोबार
हम दोनों एक ही जगह पहुंचे थे । इसके बावजूद हमारे रास्ते अलग अलग थे । सभागार में हमें साथ साथ बिठाया गया । पर वह मेरे करीब होने पर भी मुझसे आंखें नहीं मिला पा रहा था । हम एक ही गांव के थे लेकिन एक जैसे नहीं थे । मुझे कलम के क्षेत्र में पहचान मिली और उसे कर्म के क्षेत्र में । दोनों को एकसाथ न्यौता मिला । मैं गांव की पगडंडी पर चल कर यहां तक पहुंचा था और वह एक प्रकार से हवा में अपनी चमचमाती गाड़ी में । राजपथ से ।
बताऊं कि उसका पिता हमारी हवेली में रोज़ दूध लेने आता था । वह गांव से दूध इकट्ठा कर शहर में बेचने जाता था । बेटे बड़े हुए तो हलके के नेता के साथ हो लिए । देखते देखते ईंट भट्ठों का कारोबार शुरू हुआ । गांव का कच्चा मकान आलीशान कोठी में बदल गया । कोठी के आगे चमचमाती कार खड़ी हो गयी । नौकर चाकर घूमने लगे ।
पिता ने दूध का कारोबार नहीं छोड़ा । बेटों को गांव में ताने उलाहने मिलने लगे । बेटों को बाप के दूध बेचने के कारोबार से शर्म आने लगी । समझाने की कोशिश की । बाप यही कहता कि मैं तुम्हारा बाप हूं । मैंने तुम लोगों को इसी कारोबार से पाल पोस कर बड़ा किया । अब शर्म कैसी ?
आखिर बाप बेटों में जमकर कहा सुनी हुई । बाप ने बेटों को सबके सामने कह दिया -मेरा सफेद और शुद्ध कारोबार है । तुम्हारे काले कारोबार से मेरी ईमानदारी की रोटी भली । तुम लोग जो चाहो वो करो । मैं तुम्हें रोकता नहीं । फिर तुम मुझे कैसे रोक सकते हो ? मेरा अपना रास्ता है जीने का ।
बेटे चुपचाप कोठी में लौट गये थे ।
आज वह इसीलिए सभागार में साथ बैठा होने के बावजूद मेरे से आंखें चुरा रहा है ,,,
-कमलेश भारतीय