लघुकथा: कायर 

लघुकथा: कायर 
कमलेश भारतीय।

सहेलियां दुल्हन को सजाने संवारने में मग्न थीं । कोई चिबुक उठा कर देखती तो कोई हथेलियों में रचाई मेंहदी निहारने लगती । कोई आंखों में काजल डालती और कोई मांग में सिंदूर । और एक कलाकृति को रूप दर्प देकर सभी बाहर निकल गयीं । बारात आ पहुंची थी ।
तभी राजीव आ गया । थका टूटा । विवाह में जितना सहयोग उसका था , उतना सगे भाइयों का  भी  नहीं । वह उसके सामने बैठ गया । चुप । मानों शब्द अपने अर्थ  खो चुके हों और भाषा निरर्थक लगने लगी हो ।
- अब तो जा रही हो , आनंदी ? 
- हूं । 
-एक बात बताएगी ? 
- हूं ।
-  लोग तो  यह  समझते हैं कि हम भाई-बहन हैं ।
- हूं ।
- पर तुम तो जानती हो , अच्छी  तरह समझती रही हो कि मैं तुमहें बिल्कुल ऐसी ही ,,,,,,,इसी रूप में पाने की चाह रखता हूं ? 
- हूं ।
- पर क्या तुमने कभी,  किसी एक क्षण भी मुझे भी उस रूप में देखा  है ? 
- लाल जोडे में से लाल लाल आंखें घूरने लगीं जैसे मांद में कोई शेरनी तडप उठी हो ।
- चाहा था,,,,,,,पर तुम कायर निकल। मैं चुप रही कि तुम शुरूआत करोगे । तुम्हें भाई कह कर मैंने  कि तुम मुझे  किस रूप में चाहते हो पर तुमने भाई बनना ही स्वीकार कर लिया । और आज तक दूसरों को कम खुद को  अधिक धोखा देते रहे । सारी दुनिया, मेरे  मां  बाप तुम्हारी   प्रशंसा  करते  नहीं थकते ,,,,,,,पर मैं थकती हूं तुम्हारे  पौरुष पर ,,,,,जाओ कोई  और बहन ढूंढो ।
वह भीगी बिल्ली बना बाहर निकल आया ।
बाद में कमरा काफी देर तक सिसकता रहा ।
-कमलेश भारतीय