लघुकथा/भूख/मनोज धीमान
बरसों से वह सड़क किनारे पड़ा था। अक्सर राहगीर उसे ठोकर मार कर ही आगे निकलते थे। वह एक अभागा पत्थर था। ऐसा वह सोचता था। काश कि कभी उस जैसे अभागे पत्थर का भाग्य भी बदल जाये और कोई उसे तराश कर किसी मंदिर में स्थापित कर दे।
ईश्वर की उस पर कृपा हुई। उसकी मनोकामना पूर्ण हुई।
अब मंदिर में उसकी प्रतिमा के सामने भक्तों का तांता लगा रहता। भक्त उसकी प्रतिमा के सामने हाथ जोड़ते, सिर झुकाते, नाक रगड़ते, मन्नते मांगते, प्रसाद चढ़ाते....। मगर वह तो प्रतिमा के रूप में था।
एक बार फिर उसने ईश्वर का स्मरण किया। शायद ईश्वर उसकी बात इस बार फिर सुन ले।
ईश्वर एक बार फिर प्रकट हुए और कहा - मांगो क्या मांगते हो। उसने मानव शरीर पाने के लिए प्रार्थना की।
ठीक है, जैसा तुम चाहते हो वैसा ही होगा - ईश्वर ने उत्तर दिया।
उसका जन्म मानव शरीर के साथ हुआ। उसके माता-पिता मजदूरी करते थे। एक छोटी सी झोंपड़ी में रहते थे। एक समय आया जब भूख व गरीबी से उसके माता-पिता का देहांत हो गया। झोंपड़ी छोड़ कर वह प्रवास कर गया। कभी यहाँ, कभी वहां मजदूरी करता। मगर पेट की आग ऐसी थी कि बुझने का नाम ही नहीं लेती थी। दिन भर कड़ी मेहनत के बाद भी दो रोटी का जुगाड़ भी ना हो पाता। अपनी भूख की अग्नि से वह परेशान हो उठा था। आखिर उसने ईश्वर का एक बार फिर स्मरण किया। ईश्वर तो अपने भक्त को कभी निराश नहीं करते। प्रकट हो गए। कहा - बोलो भक्त, अब क्या इच्छा है तुम्हारी। उसने कहा - हे ईश्वर, मुझे पहले की तरह ही सड़क किनारे पड़ा अभागा पत्थर ही बना दें।