लघुकथा/ओले/कमलेश भारतीय
जिंदगी के पच्चीस वर्ष की हर शाम मेरी अपने पंजाब के गांव सोना में बीती। खेती करवाते और किसान के जीवन को बहुत करीब से देखते। मेरी प्रारम्भिक रचनाएं गांव की मिट्टी से ही निकलीं। ये भी उन्हें से एक है। -लेखक।
गेहूं की जो सोने रंगी बालियां महिंद्र की आंखों में खुशी छलका देती थीं, वही ओलों की मार से उसकी आंखों में आंसुओं की धार बन कर फूट पड़ीं। और जो बचीं वे काली पड़ गयीं जैसे उसकी मेहनत राख में बदल गयी हो। जैसे महिंद्र की मेहनत को मुंह चिढा रही हों।
आकाश से गिरे ओलों पर महिंद्र का क्या बस चलता? नहीं चला कोई बस। तम्बू थोडे ही तान सकता था खेतों पर? अनाज मंडी में कुदरती विपत्त जैसे इंसानी विपत्त में बदल गयी। गेहूं की ढेरी से ज्यादा उसके सपनों की ढेरी अधिक थी, जिसमें कच्चे कोठे की मरम्मत से लेकर गुड्डी की शादी तक का सपना समाया हुआ था। सरकार के दलाल मुंह फेर कर चलने लगे जैसे महिंद्र के सपनों को लात मार कर चले गये हों और महिंद्र किसी बच्चे की तरह बालू के घरौंदे से ढह गये सपनों के कारण बिलखता रह गया हो ....
शाम के झुटपुटे में वही सरकारी दलाल ठेके के आसपास दिखाई दिए, महाभोज में शामिल होने जैसा उत्साह लिए। और महिंद्र समझ गया कि वे उसके शव के टुकड़े टुकड़े नोचने आए हैं। जब तक उन्हें भेंट नहीं चढाएगा तब तक उसका गेहूं नहीं बिकेगा। उसके सपने नहीं जगमाएंगे। अंधेरी रात में ही जुगनू से टिमटिमाते.... सूरज की रोशनी में बुझ जाएंगे ।
बोतलों के खुलते हुए डाट देखकर उसके मुंह से गालियों की बौछार निकल पड़ी - हरामजादो, ओलों की मार से तुम सरकारी दलालों की मार हम किसानों के लिए ज्यादा नुकसानदेह है। और दलाल बेशर्मी से हंस दिए -स्साला शराबी कहीं का ....
लेखक कमलेश भारतीय।