लघुकथा/पछतावा/मनोज धीमान
रमेश की तबियत ठीक नहीं थी। उम्र का तकाज़ा था। पिछले कई दिनों से बिस्तर पर ही पड़ा करवटें बदल रहा था। जब कभी अधिक बोरियत या अकेलापन महसूस करता तो टीवी ऑन कर लेता। किसी न्यूज़ चैनल पर देश दुनिया के समाचार देख सुन लेता। आज उसने डॉक्टर के पास रूटीन चेकअप के लिए जाना था। उसने बेटे को आवाज लगाई। कुछ देर बाद बेटा आया तो रमेश ने उसे डॉक्टर के पास ले जाने को कहा। इस पर रमेश का बेटा तुरंत बोला - पापा, आज डॉक्टर के पास जाना सम्भव नहीं हो पायेगा, कार को रिपेयरिंग के लिए भेजा हुआ है। कार को ठीक होने में दो दिन लगेंगे। उसके बाद ही मैं आपको डॉक्टर के पास ले जा सकता हूँ। शहर में सभी कैब व ऑटो वालों की अनिश्चितकालीन हड़ताल चल रही है, इसलिए कैब या ऑटो में भी नहीं लेजा सकता। बेटे का नकारात्मक उत्तर सुन कर रमेश ने कहा - अरे तुम्हारे पास स्कूटर भी तो है, उसी पर ले जाओ मुझे डॉक्टर के पास। रमेश की बात सुनते ही उसके बेटे ने कहा - क्या बात करते हो पापा। भला मैं उस खटारा स्कूटर को कैसे ड्राइव कर सकता हूँ। देखने वाले क्या कहेंगे। सभी मेरा मजाक उड़ाएंगे। इतना कह कर वह कमरे से बाहर निकल गया। रमेश बेबस हो गया। कुछ देर बाद उसने टीवी ऑन किया तो देखा कि पंद्रह साल की ज्योति पर प्रमुखता से समाचार चल रहा था। वही ज्योति जिस ने बिना किसी रेस में हिस्सा लिए अपने परिवार और देश का नाम रोशन किया है। वही ज्योति जिस ने हरियाणा के गुरुग्राम से दरभंगा तक बारह सौ किलोमीटर की दूरी अपने पिता को साइकिल के पीछे बिठा कर एक सप्ताह में तय कर ली। समाचार देख कर उसकी आँखों से आंसू छलक आये। कितनी मन्नतों मुरादों के बाद उसके यहाँ बेटा पैदा हुआ था, उसकी इकलौती संतान। काश! उसके यहाँ भी बेटे के जगह ज्योति ने जन्म लिया होता। रमेश मन ही मन सोचने लगा।