ग़ज़ल / अश्विनी जेतली
मोहब्बत के बीज बो जाऊँगा पता न था
रांझा से हीर हो जाऊँगा पता न था
चाहत थी तुझको पाकर समंदर बनूं मैं लेकिन
कतरा कतरा सा हो जाऊंगा पता न था
लानी तो थी क्रांति जगा कर मशाल लेकिन
तेरी आगोश में सो जाऊँगा पता न था
सोचा था उसकी याद में महका करूँगा, पर
माला अश्रु की पिरो जाऊँगा पता न था
शहर की भीड़ से बचके कब्र में आया था
यहाँ भी भीड़ में खो जाऊंगा पता न था