ग़ज़ल / अश्विनी जेतली
वो शख़्स कुफ़र का इक बड़ा पुलिंदा है
ज़मीर मर चुकी जिसकी, वो चाहे ज़िंदा है
उछल उछल के उसे नाचते भी देखा है
किसी जंगल से आया हुआ, बाशिंदा है
सुर जो बदली तो खूब तिलमिलाए वो
कलाम तेरा, जो कहते थे कि, चुनिंदा है
मति मारी थी, हाथ में चाबी थमा डाली
अब वो लूट रहे तो हर बशर शर्मिंदा है
उजाड डाला है माली ने मेरे गुलशन को
न कोई फूल और न डाल पर परिंदा है