कहानी/लॉक्ड डाउन/डॉ रश्मि खुराना 

कहानी/लॉक्ड डाउन/डॉ रश्मि खुराना 
डॉ रश्मि खुराना।

रागिनी ने जैसे ही अपनी पड़ोसन मंजीत से बात करके मोबाइल बंद किया, एक अजीब सी उदासी उसके मन में घिरने लगी . उसने सिर झटक कर अपना ध्यान बंटाना चाहा पर उस  उदासी ने धीरे धीरे मानो सारी छाती को ही जकड लिया था. मंजीत ने रागिनी के घर का हालचाल बताते हुए कहा था, “इस  बार तेरे आम के पेड़ पर बौर भी बहुत आया था और आम भी बहुत लगे. पर सब लोग तोड़ तोड़ कर ले जा रहे हैँ.कुछ तो बाहर से सीढ़ी ही लगा लेते हैँ, तो कई बेरहमी से डाली खींच कर तोड़ ले जाते हैँ.अब  तो एक फल भी नहीं छोड़ा किसी ने."
रागिनी को कहीं कुछ चीर गया अन्दर तक. ओह ! उसे तो घर छोड़े तीसरा साल शुरू  हो गया है.कभी कोई कभी कोई बहाना बना उसकी बेटियां उसे लन्दन में ही अपने पास रोके रहीं हैँ. अचानक उसकी स्मृति में आवाज़ गूंजने लगी, “बूटे ले लो, फल फूल के बूटे ले लो (पंजाबी में बूटे पौधों को कहते हैँ )
“रोकना ज़रा उस पौधे वाले को “ रागिनी ने रसोई में से बाहर आँगन में खड़े अपने पति को आवाज़ लगायी. 
“क्या करना है पौधे लेकर, पहले ही इतने हैँ, संभाले तो जाते नहीं हैँ “घर कि चारदीवारी से बाहर सड़क पर पौधे वाले को झाँक कर देखते हुए पति ने कहा. 
“हरा भरा घर अच्छा लगता हैँ न राजे “ रागिनी अपने पति को राजे कह कर बुलाती थी. “और देखूँ  इस बार कोई फल का बूटा  मिल जाये तो “कहकर  रागिनी घर के  गेट तक आ जाती गई. . 
“अन्दर ही ले आओ भैया अपनी  रेहड़ी “रागिनी  ने गेट के दोनों पल्ले खोल दिए. तसल्ली से सारे फूलों फलों के पौधे देखे, पर बार-बार  उसकी नज़र आम के पौधे पर ही टिक  रही थी. 
“नहीं अब फिर से आम नहीं लगाना, पहले देखा  था  न  हाल “राजे ने अपनी अस्वीकृति दे दी थी. 
“नहीं इस  बार हम ध्यान रखेंगे न, इतना नहीं बढ़ने देंगे कि चारदीवारी के गिरने की  नौबत आ जाये “रागिनी ने हल्की ज़िद से कहा. 
पौधों का शौक रागिनी को घुट्टी में मिला था. उसके डैडी की  नौकरी में तबादले होते रहते. तो कई शहर कई मकान बदलते.  उसके मम्मी डैडी जिस मकान में भी रहते वहाँ पौधे अवश्य लगाते.  थोड़ी हो कच्ची ज़मीन तो थोड़े ,और  ज़्यादा हो तो अच्छी तरह तबियत से लगाते. इसे संयोग कहें या नियति कि  जब वह घर पूरा खिल जाता फूलों से तो या तो मालिक मकान खाली करने को  कह देता या डैडी  का तबादला उस शहर से कहीं और हो  जाता. रागिनी  ने बचपन से ही  देखा था कि  पौधों को बच्चों की  तरह कैसे पालते हैँ. 
विवाह के पाँच साल बाद जब  रागिनी-राजे ने अपना अलग घर बनाया तो  रागिनी ने घर पूरा  बनने से पहले  ही  उसमें अपने सपने बो दिए थे. आम, अमरुद, अँगूर अनार, पपीता, नींबू, मकान में प्रवेश करने तक सब अपना कद निकाल  कर  खड़े  थे. 
सुबह की चाय रागिनी और राजे अपने आँगन में बैठ कर ही  पीते थे. आँगन का  वो  कोना  ऐसा  था  जहाँ  से वे  कतार में लगे पौधे और  गेट एक साथ सीधा देख पाते. अब हर  रोज़ सुबह की चाय के  लिए यही स्थान  तय हो गया था. उनके तीनों  बच्चे सुबह की मीठी बयार में सोये रहते और ये मियां बीवी उस ठंडी बयार के आनंद में खोये चाय की चुस्कियां लेते. 
इसी ख़ुमारी में दिन महीने साल गुज़रते चले गये. कभी प्यार कभी मनुहार, छोटी छोटी नोंक झोंक, रूठ मनौवल में जीवन के दृश्य बदलते रहे. समस्याएं और समाधान होते रहे. पता नहीं क्या था ऐसा राजे में कि  रागिनी की  हर समस्या को वे सुलझा कर हाथ देते. फिर बड़े प्यार से कहते, “चल अब आधा कप चाय और पिला  दे, फिर शुरू करते हैं अपना रूटीन “.
‘आधा कप  और चाय “ का यह सिलसिला ताउम्र चलता रहा. रागिनी राजे मिल कर बच्चों को स्कूल भेजते, रागिनी सब के टिफ़िन और दोपहर के भोजन का प्रबंध करती. इसके बाद राजे अपने कॉलेज  और रागिनी अपने दफ्तर निकल जाते. 
बच्चों का स्कूल से कॉलेज  तक का सफ़र पूरा  हो गया था. आम का तना मोटा और कद ऊँचा हो गया था. बौर भी बहुत  आता था हर साल पर पता नहीं क्यों सारा का सारा ही झड़  जाता था. अमरुद  फल दे रहा था साल में दो  बार. पपीता फल देकर अब धराशायी हो चुका था. अनार ऊँचा हो रहा था. अँगूर की इठलाती बेल को बरबस विदा करना पड़ा था.  घर में पोर्च  बनवाने के कारण कुछ बदलाव मन पर पत्थर रखकर करने पड़े थे.
बड़े सालों बाद एक दिन देखा कि आम के पेड़ पर एक बड़ा गुच्छा  लटक रहा है. इस  बार भी बौराया तो बहुत था आम, पर  हर बार की तरह झड़ गया था. ये गुच्छा पता नहीं कैसे रह गया इस बार.पूरे पाँच  आमों का गुच्छा था.  रागिनी  सुबह शाम  उसे  नज़रों से दुलराती और मन में कहती “कहीं नज़र ना लग जाये “.
हां नज़र ही तो लग गई थी, पता नहीं किसकी?  इतने वर्षों में आम ने अपनी जड़ें इतनी फैला लीं थीं ज़मीन में  कि चारदीवारी का वो हिस्सा  गिरने को हो  गया. मजबूरी  आन  खड़ी हुई थी. पूरा का पूरा आम का पेड़ कटवाना पड़  गया. 
सुबह की  डेढ़ कप चाय पर विषय के साथ जीवन के दृश्य बदलते रहे. अब तो बेटे  का परिवार भी बस गया था. बड़ी  बेटी  की शादी भी हो  गई थी. वो सुख -चैन से दामाद जी के साथ  लंदन  जा  बसी थी l. सुबह की  चाय पर अपने पोते  को गोद  में  लिए बैठी रागिनी सोचती कि  शुक्र है प्रभु, तूने यह घर परिवार, सुख दिया. साथ ही उसकी दृष्टि आम वाले सूने स्थान पर जाती. काश !यह सपना भी पूरा हो जाता. 
समय के वार ने कुछ ना छोड़ा था. बेटे बहू ने अलग हो ऊपर की मंज़िल पर रहने के लिए सीढ़ियां  चढाईं  तो अनार और अमरुद भी विदा हो गये. बस अब मात्र नींबू का पौधा ही शेष था जिसने एक छोटे से पेड़ का आकार ले लिया था. रागिनी का सपना अभी अधूरा  ही था. कभी नानी  नाना के पास जब बच्चे आएं तो “ नानू  हाउस “का आकर्षण उसके फलदारवृक्ष हों. 
जीवन में आंधियां चलनी शुरू हो गयीं थीं. रागिनी को बड़ा डर लगता था आँधियों से. बचपन में अपने डैडी से और बाद में राजे से चिपट कस कर आँखें बन्द  कर लेती थी. उसने देखा था कि आँधियों के बाद पूरा का पूरा बाग़ कैसे उजड़ जाता है. 
अचानक फ़ोन  आया बड़ी बिटिया का. बड़े दामाद को ब्लड कैंसर हो गया है. परदेस  में एक बरस की बच्ची के साथ वो अकेली थी. इस खबर से घबराये रागिनी और राजे गिरते गिरते एक दूजे का हाथ पकड़ सम्भले. ये समय तो बेटी का सहारा बनने का है. पासपोर्ट,  वीज़ा, पहले राजे भागे लन्दन . फिर रागिनी फिर दोनों  एक साथ. समझ ही नहीं आ रहा था हो क्या रहा है. जो कोई इलाज बतलाता वही शुरू कर देते.सुबह सुबह गमले में उगाई व्हीट  ग्रास कूटती, देसी दवाईयां भी नियम से पिलाती. लगातार कीमोथेरपी भी चल रही थी.  
बिटिया भी माँ -पापा का दुख, परेशानी समझती थी. इसीलिए जहाँ तक हो सके बहाने से बाहर घूमने भेजती. “नहीं मेरा मन नहीं है कहीं भी घूमने का “रागिनी सचमुच कहीं घूमने  जाना नहींचाहती थी. कही जाती भी तो भी भविष्य का डर उसका पीछा  ना छोड़ता.कभी कभी दामाद भी तबियत ठीक हो तो साथ जाता. लन्दन आई, क्वींस  वाक, लंदन  ब्रिज, बकिंघम  पैलेस, मैडम टुसाड म्यूज़ियम, ट्रफलगर स्क्वायर,ये सभी  स्थल दर्शनीय तो हैँ पर मन की अवस्था क्या है ,उस पर निर्भर करता है. 
डाक्टर  अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रहे थे. दामाद को’ गायस  एन्ड थॉमस  ‘ अस्पताल से ‘ ‘किंग्स  कॉलेज अस्पताल’ शिफ्ट कर दिया था. बोन -मेरो  ट्रांसप्लांट की पूरी तैयारी आशा की एक किरण लेकर आयी थी, कि अचानक उसके सभी अंग फ़ेल  हो गये. 
रागिनी का डर सच हो गया था. एक नन्ही बच्ची के साथ अपने जिगर के टुकड़े को साथ लिए लुटे  पिटे वे दोनों लंदन  से सब  समाप्त कर लौट आये . 
कहने को लोग रागिनी को एक “ स्ट्रांग  वुमन “ कहते थे. थी भी वो निडर, उसूलों की  पक्की. पर औलाद का दुख तोड़ देता है. फिर भी रागिनी और राजे एक दूजे को थाम हिम्मत से उठे. प्रभु की  इच्छा के आगे नतमस्तक हो जीवन को गति दी. बेटी को पैरों पर खड़ा कर आत्मनिर्भर किया . 
नियति को स्वीकार कर वे दोनों  फिर से आँगन के उसी कोने में बैठे, दूर गेट तक अपनी कुम्हलाई बगिया को सींच रहे थे. 
भाग्य की  परीक्षा अभी शेष थी. बैठे -बिठाये एक रात अपने काम से लौटते हुए बेटे का एक्सीडेंट हो गया. कौन उसके स्कूटरको टक्कर मार  गया आज तक पता नहीं चला. अस्पताल दर  अस्पताल  बेटे के सिर  के पाँच  आपरेशन हुए. दो साल कौन कहाँ था, किसी को कुछ होश नहीं थी. 
पर कहर  तो अभी शेष था. एक सुबह उठाया तो उठा ही नहीं सैंतीस  बरस   का वो बेटा जिसे मौत के मुँह से निकाल कर लाये थे. रागिनी और राजे के प्यार का अंकुर काल के क्रूर शिकंजे में दम तोड़ गया था. समझ से परे था  ईश्वर  का यह फैसला. कमर टूट गई थी और घुटने जवाब देने लगे थे रागिनी के हर समय चहल - पहल वाला घर अब वीरान हो गया था. बहुरानी ने कहा “मम्मी  मैं  अंकुर के बिना यहाँ  नहीं रह सकती. या तो उनको ला दो वापिस कहीं से.नहीं तो  मैं  अपनी ममा  के साथ रहूंगी. “
रागिनी खड़ी रह गई. उसका आँचल तो खाली था. क्या आश्वासन  देती बहू को. 
इसी बीच छोटी बेटी भी लंदन ब्याही गई थी. और उसीके साथ बड़ी भी अपनी बिटिया के साथ लंदन लौट गयी थी. 
रागिनी  राजे की  बगिया तो उजड़  गई थी उसे कौन संभालता ?  
भाई के संस्कार पर विदेश से दोनों बेटियां आईं  . यहाँ माँ - बाप की  परिस्थिति  देख कर लौटीं. रागिनी के रिटायर होने में कुछ महीने शेष थे. जैसे ही रागिनी रिटायर हुई बेटियां जबरन उन्हें अपने पास ले गयीं. भरसक ख्याल रखतीं, खुश रखतीं, ध्यान बँटातीं. रागिनी का तो बिलकुल मन ना लगता कहीं भी चले जाएँ हमारा मन तो साथ ही जाता है ना. दुःख  भला कितना  कम  होगा ? राजे अपना दुःख छुपाते, ठंडी साँसे लेकर  नार्मल  दिखने का यत्न करते. 
छह महीने बाद लौटे  तो एक   बार फिर ज़िंदगी का हाथ थामने  की  कोशिश की.” चलो  फिर से बसाते  हैँ अपनी बग़िया. रागिनी ने पौधे वाले को रोक फिर से आम का पौधा ले लिया था. कुछ और पौधे भी लिए. फिर से दोनों आँगन के उसी कोने में बैठ, चाय का कप हाथों में लिए डबडबायी  आँखों से अपने पौधों को निहारने लगे. साल में छः  महीने बेटियां अपने पास बुला लेतीं. 
समय बीत रहा था. चलो.” राजे एक नयी शुरुआत करते हैँ”  रागिनी को लगा था जैसे  जीवन फिर से मुट्ठी में आ गया है. यही भ्रान्ति  शायद मानव मन की सहजता है. पाकर खोकर वो फिर भूल जाता है. फिर चाहने लगता है. रागिनी भी इंसान ही थी ना. 
एक बार फिर रागिनी कुदरत कहें या ईश्वर के  हाथों ठगी गई. 
राजे ने साथ  छोड़ दिया था रागिनी का.राजे के चेहरे की अंतिम मुस्कान बता रही थी कि  वो बेटे के पास जाकर खुश हैँ. 
बेटियों  को लगता है कि  माँ  अब उन्हीं कि ज़िम्मेदारी है इसलिए  नियम से छः महीने बाद अपने पास लंदन ले जातीं हैँ.  रागिनी मजबूर हो जाती है जाने के लिए, खुल कर कह नहीं पाती कि मुझे यहाँ अपने घर अपनी यादों के समंदर में ही रहने दो. ये पौधे हैँ ना मुझसे बतियाने को. 
दो साल पहले अपने घर में चककर खा गिर गई थी रागिनी. अकेली थी घर में और दरवाज़ा अन्दर से बन्द था  टांग कि हड्डी टूट गई थी  दरवाज़ा तोड़ पड़ोसियों ने तीन घंटे बाद बाहर निकाला. बेटियां आईं  विदेश से, ऑपरेशन  करवाया और साथ ले गयीं  माँ  को. तब से लौटने  नहीं दिया है. 
रागिनी हर रोज़ ज़िद करती है पर बेटियां कभी कोई कभी कोई बहाना बना माँ  को लौटने नहीं देतीं. वे  डरतीं हैँ कहीं  माँ  भी ना खो  जाये. माँ  को समझाती हैँ “वहाँ कौन है अब आपका, कौन रखेगा आपका  ध्यान “ फिर बहलाने को कह देतीं है “चलो अगले महीने चली जाना अपने घर, अभी ज़रा फलां ज़रूरी काम है “. 
बच्चे बहुत समझदार  हैँ, पर वे क्या जाने कि माँ  क्या ‘ मिस ‘करती है – अपनी पहचान,  अपना
दायरा, अपना  अस्तित्व, अपना घर, अपनी यादें, किसी परिचय की  आवश्यकता नहीं है उसे वहाँ . अनेक भूमिकाएं हैं वहाँ  उसकी. 
अब फिर तैयार थी लौटने को तो यह कोरोना “संकट  आ खड़ा हुआ. पता नहीं कब शुरू होंगी फ्लाइट्स. रागिनी हर रोज़ अपनी पड़ोसन को इंडिया  फ़ोन करती है और घर का हाल  पूछती है. 
दबे सुर में अपने पौधों का भी पूछती है.  पड़ोसन मंजीत समझती है रागिनी का  दुःख. 
इसीलिए उसने अपनी ओर से सुख का समाचार ही सुनाया था कि  इस बार तेरे आम पर बहुत फल लगा  हैं  और लोग तोड़ तोड़ कर ले जा रहे है. 
रागिनी को ऐसा लगा कि जैसे तू नहीं है वहाँ तो तेरा घर लुटा जा रहा है. जैसे आम ना हों उसका राजपाट हो, उसका जीवन सुख हो. जैसे उसका अस्तित्व ही समाप्त हुआ जा रहा है . 
बड़ी शिद्दत से रागिनी को घर लौटने का इंतज़ार है. पता नहीं कब ख़त्म होगा यह लॉकडाउन. लौट भी पाऊँगी या नहीं. 
रागिनी सोचती है जैसे वो मेरे घर के आम नहीं मेरा नसीब है 
जो लॉक्ड डाउन हो गया है- - - - , और पता नहीं कब - - - - - - 

*लेखक डॉ रश्मि खुराना सहायक केंद्र निदेशक (पूर्व ) आकाशवाणी, जालंधर हैं। वर्तमान में वे लीसेस्टर (यूके) में रह रही हैं।