महानगर....
चंडीगढ़ में सन् 1990 में `दैनिक ट्रिब्यून' में उपसंपादक बना तब ये छोटी छोटी रचनाएं लिखी थीं: महानगर ...
ये सुभाष रस्तोगी व माधव कौशिक द्वारा संपादित कार्यालय पत्रिका `अंकुर' में एकसाथ प्रकाशित की गयी थीं।
1 महानगर की दीवार के साथ हांफते हुए
तेज़ रफ्तार ज़िंदगी की
दौड़, होड़ के बीच
बहुत याद आया
मुझे अपना गांव
2 कोयल कुहुकी
महानगर की तेज़ रफ्तार जिंदगी में
उसकी मीठी आवाज़
किसी ने न सुनी
इसलिए वह बेचारी
बहुत सिसकी
बहुत सिसकी
3 महानगर में चांदनी
पेड़ों के पीछे से
मुस्कुराती नहीं झांकती
बल्कि
दूधिया ट्यूबलाइट्स के सामने
मुंह छिपाये
उदास रोती है
रात भर
4 दिल में बस
एक ही हसरत रही
महानगर की भीड़ में
मुझको कोई मेरे गांव के
नाम से पुकार ले
5 मेरे छोटे से गांव
मुझे माफ कर देना
मैं तुम्हारी ममता भरी छांव
छोड़कर
महानगर की धूप में चला आया
6 अब गांव से मां की चिट्ठी
कभी नहीं आएगी
आएगी भी तो
महानगर की भाग दौड़ में
कमरे के एक कोने में
निरूत्तर ही पड़ी रह जायेगी
7 गांव ने उलाहना दिया
महानगर के नाम
मेरे सपूत छीन लिए
दिखा मृगतृष्णा की छांव
8 महानगर में बस
एक पांव रखने की देर थी
उसने मुंह खोला
और मेरे व्यक्तित्व को
पूरे का पूरा
निगल लिया
9 महानगर
क्या खूब हो तुम भी
सौंप देते हो
आंखों के सामने से
गुजर जाते हैं
असंख्य चेहरे
पर किसी को जानने की
फुर्सत तो नहीं देते
-कमलेश भारतीय।