उपन्यास `कमरा नंबर 909' - डॉ अजय शर्मा का नया मील पत्थर  

उपन्यास `कमरा नंबर 909' - डॉ अजय शर्मा का नया मील पत्थर  

मुझे आज (4 अप्रैल, 2021) `साहित्य सिलसिला' (अप्रैल-जून 2021) का अंक कूरियर द्वारा प्राप्त हुआ। इस मैगज़ीन में डॉ अजय शर्मा का उपन्यास `कमरा नंबर 909' मुकम्मल तौर पर प्रकाशित किया गया है। मैगज़ीन के 30 पन्नो पर प्रकाशित हुए इस उपन्यास को मैंने तुरंत पढ़ना शुरू किया और एक बैठक में ही पढ़ कर दम लिया। उपन्यास का मुख्य पात्र डॉ आकाश है जो कोरोना महामारी का घर बैठे ही शिकार बन जाता है और उसे अस्पताल में इलाज के लिए दाखिल किया जाता है। अस्पताल में बिताये दस दिनों में डॉ आकाश ने जो कुछ देखा व महसूस किया उसी को लेकर इस उपन्यास की कहानी का ताना-बाना बुना गया है। पेशे से आकाश बेशक एक डॉक्टर हैं। मगर,अस्पताल में उन्हें एक मरीज के तौर पर ही ट्रीट किया गया। उनकी पहचान डॉ आकाश न हो कर कमरा नंबर 909 के एक मरीज के तौर पर बन गई। अस्पताल के अपने दस दिनों के आवास के दौरान डॉ आकाश की क्या मनोस्थिति थी, अन्य रोगियों की क्या मनोस्थिति थी तथा डॉ आकाश के परिवार के सदस्यों की क्या मनोस्थिति थी इस का चित्रण लेखक द्वारा बहुत सूक्ष्मता से किया गया है। साथ ही इस बात का भी अच्छे से उल्लेख किया गया है कि अस्पताल के स्टाफ व्यवहार कैसा था। महामारी के दौरान अस्पताल में क्या चल रहा था। 
उपन्यास बेशक कोविड19 का शिकार हुए एक मरीज की कहानी पर आधारित है। लेकिन, इस उपन्यास में ऐसे कई प्रश्नों का सफलता से उत्तर देने का प्रयास किया गया है जिन के लिए एक आम आदमी यहाँ-वहां भटकता है। जैसे उपन्यास का एक पात्र गुप्ता जी कहते हैं - "असल में जब हम सांस अंदर लेते हैं, तो वह जीवन है और जब हम लोग सांस बाहर छोड़ते हैं, तो वह मृत्यु है।  और पता नहीं कौन -सी सांस अंदर आये कौन-सी  नहीं, कहना मुश्किल है।" उपन्यास में अच्छे संस्कारों का जिक्र भी अच्छे ढंग से किया गया है। उपन्यास में संस्कारों के किये गए उल्लेख उपदेश मात्र नहीं लगते बल्कि, उपन्यास का एक अहम हिस्सा बन जाते हैं। उपन्यास बताता है कि डॉ आकाश अच्छे संस्कारों से ओत-प्रोत हैं जिसकी कमी आज समाज में खलने लगी है।  
कोरोना महामारी का शिकार बने लोगों को इलाज के लिए किन आर्थिक हालातों का सामना करना पड़ा इस का उल्लेख भी अच्छे से किया गया है।  डॉ आकाश के इलाज के लिए उनके परिवार को सोने के बचे हुए गहने तक बेचने पड़ते हैं। इस बात से पाठक सहज ही अनुमान लगा सकता है कि एक साधारण आदमी जो रोजाना कमा कर खाता है अगर महामारी का शिकार बन जाता है तो क्या उसके लिए इलाज करवा पाना संभव हो पायेगा? प्रश्न तो और भी कई उठाये गए हैं जिनके बारे में पाठक पढ़ कर ही तह तक जा सकता है। लेखक ने एक जगह तरक्की को भी महामारी के तेजी से फैलने का कारण बताया है। 
महामारी की वजह से रिश्तों में दूरियां कैसे बनने लगीं इनका जिक्र भी बेहतरीन ढंग से किया गया है। इन दूरियों को डॉ आकाश ने एक भाई के तौर पर उस समय महसूस किया जब वे अपनी बहन के घर राखी बंधवाने के लिए गए। महामारी के दौर में हरेक की प्राथमिकता अपनी जान बचाना दिखाई  देती है। इस सब में रिश्ते, नाते कहीं पीछे, बहुत पीछे छूट गए लगते हैं। डॉ आकाश अक्सर भावनाओं में बह जाता है। कभी वह बसरा की गलियों में पहुँच जाता है और कभी सुख-दुःख के गहरे समुद्र में। लेकिन, भावनाओं में डूबे डॉ आकाश हर बार एक नई ताकत के साथ उभरते हैं और अस्पताल के अन्य रोगियों को भी सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करते हैं। वे भावनाओं में बह कर अपने रास्ते से भटकते नहीं। अपनी भावनाओं से भी बहुत कुछ व्यक्त कर जाते हैं। वे कभी मुहावरों का इस्तेमाल करते हैं, तो कभी बुल्ले शाह की बात रखते हैं।
उपन्यास में लेखक ने उन लोगों की पोल भी खोल कर रख दी है जो गुरु बन कर अपनी दुकानें चला रहे हैं और भोले भाले लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। उपन्यास में एक जगह लिखा भी गया है ---"कोरोना तो देर-सवेर चला ही जाएगा, लेकिन आप जैसे लोग जो समाज की जड़ें खोखली करने पर तुले हुए हैं, उनका क्या होगा?" लेखक ने यह भी बताने का प्रयास किया है कि महामारी में गुरु और चेले का दर्जा समान है। कोई बड़ा, कोई छोटा नहीं। अगर चेला महामारी की चपेट में आ सकता है तो गुरु भी इससे बच नहीं सकता। वैसे यह बिलकुल सत्य है।  महामारी की चपेट में आने से कोई भी बच न सका। चाहे वह अमीर हो, गरीब हो, बड़ा हो, छोटा हो, नायक हो, या महानायक, नेता या अभिनेता। 
कमरा नंबर 909 में उपचाराधीन डॉ आकाश को जब पता चलता है कि वे ठीक हो रहे हैं तो वे मन ही मन पूरे दीन भाव से भगवान का लाख-लाख शुर्किया अदा करते हैं। वे कहते हैं ---"नहीं तो इन कमरों में कौन बचेगा, कौन नहीं...किसी को भी पता नहीं।  यह एक भूल-भुलैया जैसा रास्ता है, जिस पर कोई भी गुम हो सकता है, सदा के लिए।" वैसे डॉ आकाश एक लेखक भी हैं और अपनी लिखी कहानियों को सबसे बड़ी संपत्ति मानते हैं। डॉ आकाश अस्पताल में इलाज के लिए निकलने से पहले बहुत आशंकित होते हैं। उन्हें यकीन नहीं है कि वे घर वापस लौट भी पाएंगे या नहीं। एक जगह डॉ आकाश कहते हैं --"मेरी जितनी भी कहानियां कंप्यूटर में जिस-जिस ड्राइव में पड़ी थीं, बड़े बेटे को बताकर आया था। मैंने उसे केवल इतना कहा था, अगर बचकर न आ पाया तो सारी कहानियां निकालकर किताब छपवाने की ज़िम्मेवारी तेरी है।" एक भुक्तभोगी के तौर पर डॉ आकाश यह भी कहते हैं - `जो तन लागे सो तन जाने। तुम और मैं तो भुक्तभोगी हैं। अब तो हर सांस से डर लगने लगा है। इस तरह लेखक ने बेहतरीन ढंग से एक कोरोना मरीज की मनोस्थिति का जिक्र किया है।  और तो और, लेखक ने एक जगह इन्शुरन्स पालिसी वालों और अस्पताल वालों की तथाकथित धांधली का पर्दाफ़ाश भी किया है।
कोरोना की बीमारी से ठीक होने के पश्चात एक व्यक्ति की शारीरिक स्थिति कैसी होगी इसका उल्लेख भी लेखक ने अच्छे से किया है। डॉ आकाश ठीक हो कर घर लौटते हैं और जब आईना देखते हैं तो स्वयं को कुछ ऐसा पाते हैं ---"मेरा बदन बहुत कमज़ोर हो चुका है, मुझे कोई ज़रा-सा भी हिला दे तो मैं गिर जाऊंगा।"  
अंत में यही कह पाऊंगा कि `कमरा नंबर 909' बहुत कुछ कहता है। एक साथ कई कहानियां, कई किस्से। सुख-दुःख की बातें। टूटते-बिखरते, जुड़ते रिश्तों की बातें। यादें। समाजिक सरोकार। आर्थिक तंगियों के बारे में। बड़े मगरमच्छों का जिक्र। छोटी मछलियों की छटपटाहट। अंधेरों का खौफ। रौशनी की तलाश। और भी बहुत कुछ ........।

 

(डॉ अजय शर्मा)

 

-मनोज धीमान   

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