संस्मरण/मैं वीरेंद्र मेंहदीरत्ता जी का आजीवन छात्र कैसे बना/कमलेश भारतीय
वीरेंद्र मेंहदीरत्ता जी । लगभग नब्बे वर्ष के हैं । सन् 1975 के मई माह में नवांशहर से एम ए हिंदी करने आए मेरे दोस्त मुकेश सेठी ने इनसे परिचय करवाया था । वह खुद तो एम ए हिंदी बीच में छोड़ गया लेकिन मैं इनका कोई छात्र न होते हुए भी इनका आजीवन छात्र बना हुआ हूं । मेरे पहले कथा संग्रह महक से ऊपर को भाषा विभाग, पंजाब का पुरस्कार देने वाले तीन निर्णायकों में से एक । छोटे भाई तरसेम को टर्मिनेट किये जाने के बाद एक चुटकी और एक फोन पर ही बहाल करवा देने वाले डाॅ मेंहदीरत्ता ही थे जिन्होंने कहा कि तुम आराम से सो जाओ । सुबह वह बहाल हो जायेगा क्योंकि उनके परम मित्र डाॅ प्रेम शास्त्री हमारे पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड के वाइस चेयरमैन थे ।
पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित तीन दिवसीय कथा शिविर में सबसे पहले मेरी कथा अगला शिकार का पाठ करने का सुअवसर दिया था । कितने शांत । बुद्ध की प्रतिमा घर में लगा रखी है । इनकी कहानियां भी कथा समय में प्रकाशित करने का सौभाग्य मिला । नयी कहानियां निरंतर लिखते रहते । कहते नया ज्ञानोदय में भेजनी है और मैं कहता कि आप मुझे कहानी दीजिए मैं कथा समय को ही नया ज्ञानोदय के स्तर तक ले जाऊंगा आपके आशीष से और वे अपनी कथा मुझे सौंप देते ।इस बार 23 जनवरी को जब चंडीगढ़ गया तब भी मैं दर्शन करने तो गया लेकिन कुछ उदास लौटा हूं । बुलाया धीरा खंडेलवाल जी ने था अपनी पुस्तकों के विमोचन समारोह में और डाॅ वीरेंद्र मेंहदीरत्ता ने ही मुख्य वक्ता के रूप में आना था लेकिन वे नहीं आए । स्वास्थ्य कारणों से बना कर दिया । फिर में समारोह के बाद घर पहुंचा इनके । कई बार राजेंद्र राजन् भी पूछता रहता था फोन पर कि मेंहदीरत्ता जी कैसे हैं आजकल । कभी मिलो तो मेरी भी याद दिलाना । हर बार केतली भर चाय पिलाने वाले और खूब प्यार, स्नेह बरसाने वाले डाॅ मेंहदीरत्ता इतने अस्वस्थ थे कि रजाई से बाहर न उठ सके । यों बातें कीं । हंसे भी मेरी हिमाचली टोपी देख कर और नये कथा संग्रह यह आम रास्ता नहीं है और पत्रिका व्यंग्य यात्रा को सहर्ष स्वीकार भी किया और शुभाशीष भी दी लेकिन ज्यादा देर मैं भी न बैठा और उदास बाहर निकल आया । भगवान् इनकी उम्र लम्बी करे और स्वस्थ रखे । यही दुआ है मेरी । अगली बार चंडीगढ़ जाऊं तो फिर आशीष दें ।।
-कमलेश भारतीय