संत सिंह सेखों पर एक संस्मरण
बाबा बोहड़ - - संत सिंह सेखों
डॉ रश्मि खुराना द्वारा `सिटी एयर न्यूज़' के लिए विशेष
फरवरी शुरू होते ही याद आ जाती है -फरवरी 1997।
रास्ते भर मैं सेखों कि रचनाओं से कुछ विशेष अंश ऊँची आवाज़ में पढ़ कर सुना रही थी।हम संत सिंह सेखों की रिकॉर्डिंग करने उनके गाँव दाखा जा रहे थे। मेरेसाथ स्टेशन डायरेक्टर श्री अशोक जेरथ व दो अन्य साथी थे। अशोक जेरथ साहित्यप्रेमी ही नहीं, स्वयं भी नामी लेखक थे। इसलिए आकाशवाणी के जिस केंद्र पर वे जाते वहां साहित्य जगत लहलहा उठता। भाषा की सीमाओं को पार करना उन्हें आता था। इसलिए मुझसे सेखों का पंजाबी में रचित सुन रहे थे। हम सब बड़े उत्साहित थे। आकाशवाणी पर नियमित रूप से आने वाले वार्ताकारों से भी एक नाता सा जुड़ जाता है। वे हिन्दी, पंजाबी या किसी अन्य भाषा या विभाग से हैँ, ये सब गौण हो जाता है। सेखों हम सबके सांझे थे। कुछ दिनों से सुन रहे थे कि सेखों काफ़ी अस्वस्थ चल रहे हैँ। यह जानते ही यायावर स्वाभाव के केंद्र निदेशक महोदय ने हम सबके साथ सेखों को उनके निवास पर ही रिकॉर्ड करने का प्रोग्राम बना लिया था।
लुधियाना -फ़िरोज़पुर मार्ग से दाहिने हाथ होकर कार गांव दाखा की ओर चल पड़ी। और शीघ्र ही एक बड़े हवेलीनुमा दरवाज़े के आगे रुक गयी। इस गोल बड़े दरवाज़े में एक छोटा द्वार भी था। थपथपा कर हम भीतर झाँके। सामने ही आँगन के कोने में सेखों एक चारपाई पर विराजमान थे। देखते ही खिल गये।
"आओ जी, जी आया नू, धन्न भाग "प्यारे प्यारे फूल बरसा रहे थे सेखों। हम सब वही रखे कुर्सी स्टूल आदि पर बैठ गये। अशोक जेरथ सेखों के साथ चारपाई पर ही बैठे। उन्होंने सेखों के हाथ देर तक अपने हाथों में थामे रखा और अपनी आँखों से सेखों की आँखों में कुछ कहते रहे।
"लियाओ भई चाह शाह "सेखों ने अंदर आवाज़ लगायी।
अशोक जेरथ ने मीठी मुस्कुराहट के साथ कहा
"हमने नहीं पीनी है चाह शाह, हम तो खाएंगे मक्की की रोटी और साग "
सेखों हो हो कर हँस पड़े, "धरो भइ धरो साग, मज़ा आ गिया "
इधर एक कमरे में हमने अपना टेप रिकॉर्डर सेट कर लिया। जेरथ सर सहारे से सेखों को वहां लेकर आये।
हलके फुल्के सवाल जवाब होने लगे। मक़सद तो सेखों की आवाज़ क़ैद करना था।
"मेरा जन्म एक ग़रीब किसान परिवार में हुआ था। देश के बंटवारे में हम बिलकुल ही लुट पिट गये थे। मैं पढ़ाई में अच्छा था, पर थोड़ा ओवर कॉंफिडेंट था। तीन बार तो नौकरी से ही इस्तीफा दे दिया था।"
सेखों हो हो कर के हँसते। साथ ही चश्मे में से झांकती आँखें भी हंसती।
"मैंने लिखना तो अंग्रेजी में शुरू किया था। पहली तीन रचनाएं तो अंग्रेजी में ही छपीं। पर अभी जैसे कुछ बात नहीं बन रही थी। एक दिन मुझे सोहन सिंह जोश मिले। मेरी पीठ थपथपा कर बोले क्यों अंग्रेजी के पीछे पड़े हो, पंजाबी में लिखो ना । बस फिर मैं इस तरफ ही शुरू हो गया और खूब छपा। मैं भारतीय साहित्य में सिर्फ प्रेमचंद से प्रभावित हूँ।"
सेखों अपनी स्मृति लहर में इधर से उधर बहे जा रहे थे। हम सब इसका आनंद ले रहे थे। बीच में टोक टोक कर सवाल करने का कोई औचित्य नहीं था।
"मेरा मानना है कि भूखे पेट साहित्य सृजन नहीं हो सकता। अच्छे साहित्य सृजन के लिए रज्जिया पुज्जिया होना चाहिए। तभी अच्छी बात सूझती है।
मैंने तो पैसे के लिए लिखा, नाम कमाने के लिए लिखा। "
एक सच्चे लेखक का अनुभव बोल रहा था।
जेरथ साहब ने थोड़ी शरारत भी की। एक मीठी सी चुटकी के साथ पूछा "कोई लड़की कोई औरत जो प्रेरणा रही आपकी रचनाओं की, कोई तो होगी? "
सेखों उसी अंदाज़ में हो हो करके हँस दिए। आँखों में चमक थी, बोले "मोस्ट रिमार्केबल एक अमरीकन स्त्री थी। उसे दोस्त कह लो, माशूका कह लो, प्रेरणा मान लो। पर इसके सिवा कोई और नहीं। वो भी कभी सीधे तौर पर मेरी किसी रचना या पात्र में नहीं है, बिलकुल नहीं "
फिर लगा थोड़े असहज से हो गये, कि पता नहीं क्या कहलवा लिया जायेगा। हमने भी सवालों का रुख मोड़ दिया। अधिकतर वे प्रश्नों के बिना स्वयं ही हँस हँस कर कहे जा रहे थे।
"मैंने थोड़ा रूमानी और बाकी किसानों और सिख इतिहास पर अधिक लिखा। "
"आपको बाबा बोहड़ भी तो कहा जाता है " इस प्रश्न पर बोले " पर मैं ऐसा बोहड़ नहीं हूँ जिसकी छाया में कोई पनप ना सके। मेरे बारे में बलवंत सिंह ने कहा था कि ये बाबा है पर बोहड़ नहीं । मैं शुरू से ही प्रोग्रेसिव विचारधारा का रहा हूँ। "
घर के अंदर से साग का बुलावा आ गया था। श्रीमती सेखों सादी गृहणी आदर सत्कार से भरी हुईं बड़े प्यार से मिलीं । रसोई में उनकी बहू भी साथ थी, गोद में एक नन्हा बालक था।
साग मक्की रोटी और घर का रिड़का मक्खन !
पहला निवाला डालते ही मुंह से निकला "वाह्ह"।
इससे पहले जैसे ज़िन्दगी में ये स्वाद कभी आया ही नहीं था। ऊपर से होर लवो, होर लवो की मिठास सोने पे सुहागा।
"मैं तो अब हमेशा यहीं आकर साग खाऊँगी, और रिकॉर्डिंग किया करुँगी "मेरे ये कहते ही सेखों फिर हो हो कर हँस दिए। आशीर्वाद भरा हाथ मेरे सिर पर रख दिया।
शाम के पांच बज गये थे। विदा लेने का मन ना होते हुए भी वापिस तो लौटना ही था।
तभी छोटे गेट को खोल साईकिल पर पट्ठे रखे एक दुबला सा नौजवान अंदर आया।
"ये मेरा बेटा है "सेखों ने बताया। बेटे ने झुक कर सबको पैरीं पौना किया।
क्या सादगी थी, जिसमे सारा घर परिवार लिपटा हुआ था।
उन सबको आँखों में भरे हम लौट आये। आकर फिर वही दफ्तर, प्रोग्राम, व्यस्तता। कुछ समय बाद उनके निधन का समाचार मिला। सब कुछ फिर आँखों में तैर गया।
जैसे अभी भी हँसती हुईं आँखों से हाथ उठा आशीर्वाद दे रहे हों।
ये संस्मरण लिखते लिखते खबर आयी दिलीप कौर टिवाणा चल बसीं और एक दिन बाद ही जसवंत सिँह कँवल। दोनों जैसे अभी आकाशवाणी जालंधर के हमारे कमरे में खड़े मुस्कुरा रहे हों
फिलहाल बात बात यहीं समाप्त करती हूँ
शेष फिर सही।
डॉ रश्मि खुराना के बारे में:
डॉ रश्मि खुराना, डी।लिट्,आकाशवाणी से सहायक केंद्र निदेशक के रूप में सेवा-निवृत्त हैं। अपने 37 वर्ष के आकाशवाणी के सफर में इन्होने हिंदी,अंग्रेजी ,पंजाबी,व उर्दू भाषा के विभिन्न कार्यक्रमों का कुशल निर्देशन किया। क्षेत्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर अनेक कार्यक्रमों की संरचना की। एक प्रसरणकर्मी और वक्ता के रूप में इनकी एक अलग पहचान है। जनसम्पर्क में आना विशेषतः नारी, वरिष्ठ नागरिक, युवा व बाल मन के विचारों और उनकी समस्याओं से ओत-प्रोत बात करने में डॉ रश्मि की विशेष रूचि रहती है। आज भी विभिन्न यूजीसी,यूनेस्को, अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय सेमिनार में ये रिसोर्स-पर्सन के रूप में सक्रिय हैं। सेवानिवृत्ति के बाद डॉ रश्मि खुराना ने स्वयं को साहित्य के प्रति पूर्णतया समर्पित कर दिया है। उन्होंने हिंदी, पंजाबी व अंग्रेजी में लेखन-कार्य किया है, जिस में सुरभि /कहानी संग्रह (हिंदी); बात निकलेगी तो/ रेडियो संस्मरण (हिंदी); तीन बाल कहानी- संग्रह (अंग्रेजी) शामिल हैं। इसके अतिरिक्त कई पंजाबी पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद भी कर चुकी हैं।