संस्मरण/कभी कभी किसी शहर से गुजरते
आज चरखी दादरी आई तो वह बहादुर बेटी भी याद आई
-कमलेश भारतीय
कभी कभी किसी शहर से गुजरते हैं तो कोई पुरानी याद चली आती है । आज सुबह-सुबह रेवाड़ी से रेल में बैठा और चरखी दादरी पहुंच कर पत्रकारिता का एक बहुत मार्मिक कांड याद आ गया । एक लडकी ने विधिवत फेरे लेने के बाद प्रातः चार बजे विदाई से इंकार कर दिया था । बारात बिना दुल्हन लौटी । क्यों ? अखबार के लिए मैं हिसार से चरखी दादरी आया । सुबह से शाम हुई पिता ने मिलने नहीं दिया क्योंकि मीडिया चैनल उसका शो चला चला कर खूब टीआरपी बढ़ाने की होड में थे । लडकी परेशान हो चुकी थी । बडी कोशिशों के बाद शाम को मिलाया ।
कलाई पर क्लीरे और हाथों पर रची मेंहदी। मैंने एक ही सवाल पूछा-बेटी , वह कौन सा पल था जब तुमने विदाई न करने का फैसला लिया ?
-अंकल , मैं विदाई के लिए तैयार थी । दूल्हे का जीजा आया । उसने कहा कि कार तो दी ही नहीं । फिर उसने बडे विजयी और वहशी तरीके से कहा -कोई बात नहीं । दुल्हन ले चल । कार कुछ दिन बाद ले लेंगे । बस । मेरा दूल्हा बिना विरोध सिर झुकाए खडा रहा ।
मैं कमरे से बाहर निकली और पिता के कंधों पर सिर रख कर खूब रोयी और कह दिया कि मैं इसके साथ नहीं जाऊंगी । जो आज दहेज का विरोध नहीं कर सकता , वह कल क्या करेगा ?
मैंने उस साहसी बेटी को सराहा और कहा कि आज पहली बार मुझे बेटा न होने का दुख हुआ । काश , मेरे तुम्हारी उम्र की बेटी ने होकर बेटा होता , मैं तुम्हें बिना दहेज ब्याह ले जाता ।
आज चरखी दादरी आई तो वह बहादुर बेटी भी याद आई । काश , सभी बेटियां इतनी हिम्मत दिखाएं तो,,,,,इस दहेज के राक्षस को तो मार गिराएं....