मोक्षाश्रम यहाँ दुखों की पोटलियां सुखों में बदल जाती हैं
- कमलेश भारतीय
मैं बात करने जा रहा हूँ - कैमरी रोड स्थित मोक्षाश्रम की, जिसकी संचालिका प्रसिद्ध समाजसेविका पंकज संधीर हैं और इसके अध्यक्ष हैं विजय भृगु । वैसे तो पहले भी मोक्षाश्रम दो चार बार गया हूँ लेकिन इस बार का जाना दिल को अंदर तक बहुत ही भिगो गया ! भाभी पंकज संधीर और डाॅ वंदना बिश्नोई दोनों को आर्टिस्ट वेद प्रकाश और उनके बेटे सिकंदर के श्वेत श्याम कलाकृतियों के उद्घाटन पर आमंत्रित किया था, जैसे ही यह कार्यक्रम संपन्न हुआ, भाभी संधीर ने पेशकश रखी कि छोले भटूरे खाने हों तो मेरे साथ मोक्षाश्रम चलो ! डाॅ वंदना, मैं और बेटी रश्मि एकदम तैयार हो गये और दोपहर बाद मोक्षाश्रम पहुंचे ! पहले से ही विजय भृगु और सिमरन हमारी राह देख रहे थे ! गणतंत्र दिवस का तिरंगा फहरा रहा था! भाभी संधीर हमें आश्रम दिखाने एक गाइड की तरह चल पड़ीं। सबसे पहले दिल्ली की एक ऐसी महिला के कमरे में ले गयीं,जो खूब अच्छी अंग्रेज़ी बोल रही थीं । उस महिला ने डाॅ वंदना से मज़ाक मज़ाक में कहा कि क्या मुझे अपनी यूनिवर्सिटी में कोई नौकरी देंगीं ? उन्होंने हमें गज़क भी ऑफर की ! इस तरह कहीं लगा ही नहीं कि हम किसी वृद्धाश्रम में आये हैं। ऐसे लगा कि जैसे किसी अपनी परिचित महिला से मिलकर आये हैं । फिर छत पर खिली धूप में कुछ महिलाओं को आलू, प्याज और सब्ज़ियां काटते और साथ साथ भजनों पर झूमते देखा । मन के अंदर से फिर आवाज़ आई कि यहाँ कौन वृद्ध है? वहीं एक महिला, जिसके हाथ ही नहीं पैर भी मुड़े हुए थे, उससे परिचय करवाया मोक्षाश्रम की मां यानी भाभी संधीर ने कि कितनी अच्छी पेंटिंग्स बनाती है ! डाॅ वंदना और हम सबने इनके साथ फोटो ही नही करवाये बल्कि इनके भजनों के साथ झूमे और नाचे भी!
इसके बाद हमें धूप सेंक रहे आश्रम के कुछ लोग व्हील चेयर पर बैठे मिले, जो साथ साथ पालक भी काट रहे थे। सबके चेहरे माँ को देखकर खिल उठे और माँ भी उनसे हाल चाल पूछने लगीं, दवाइयाँ, कम्बल व और दूसरी सुविधाओं के बारे में ग्राउंड लेवल पर जानकारी ली । कोई बात आने पर साथ चल रही आश्रम की सहयोगी को ध्यान देने के लिए हिदायत देती चली गयीं । इस तरह वे हमें शैशव कुंज, आनंदा और मोक्षाश्रम तीनों में लेकर बड़े उत्साह से दिखाने गयीं । हर कहीं से मां आ गयी, मां आ गयी की आवाज़ें आती रहीं और मां सबकी कुशल क्षेम पूछतीं अपने हाल ही में हुए घुटनों के ऑपरेशन को एकदम भूल कर कभी सीढ़ियां तो कभी रैंप पर चढंतीं उतरतीं रहीं ! कहीं कोई थकान नहीं, जैसे यह सेवा करके उन्हें नया जोश, नयी उमंग आती जा रही थी ! हर कमरे में अपने अपने दुखों की पोटलियां जरूर थीं लेकिन सब कहीं दूर छूट गयी थीं और सुखों में बदल गयी थीं ! कैसे? इन सभी आश्रमों को मिलाकर कुल 180 वृद्ध महिला व पुरुष रहते हैं। उनकी नयी दुनिया बस गयी है। यह दुनिया इन्हें दी है श्रीमती पंकज संधीर व विजय भृगु ने। बाहर खेतों में पीली पीली सरसों की तरह इनके चेहरे अच्छी देखभाल से खिले हुए हैं! आखिरकार छोले भटूरे खाने की दावत का समय आ गया। गर्मागर्म छोले भटूरे! यही आज आश्रम में सबको परोसे गये! तिरंगा फहरा रहा है! देश बदल रहा है।
एक बात है कि लोग छोटे छोटे काम कर फोटोज छपवाने के लिए अखबार के दफ्तरों में भागते हैं और यह मां संधीर और विजय इससे कोसों दूर हैं ! काश! सरकार की आंखें इन खामोश समाजसेवियों को पहचान सकें !