मुकाम : पर्यावरण रक्षा का संदेश 

मुकाम : पर्यावरण रक्षा का संदेश 

-*कमलेश भारतीय
कोई भी देवी देवता किसी एक धर्म या  समाज का नहीं होता। सभी समाजों का होता है। न कोई हिंदू, न कोई मुसलमान, सब धर्म एक समान। फिर चाहे बिश्नोई समाज के गुरु जम्भेश्वर हों। यह तीसरा सुअवसर था कि कल से आज तक दो दिन मुकाम यात्रा की।  आजकल यात्रायें बहुत आसान हो गयी  हैं। वाट्सएप ग्रुप बने हुए हैं, जिनमें अमावस्या पर यात्रा पर जाने की सूचना आ जाती है और मुकाम में हर अमावस्या पर मेला भरता है, मेला लगता है। ‌ये वीडियो कोच अमावस्या से एक दिन पहले निकलते हैं मुकाम के लिए। इस तरह दूर दराज के नये से नये लोगों के साथ यह यात्रा शुरू होती है ग्यारह बजे के आसपास बाइपास से। हम लोग ऑटो से बाइपास तक पहुंचे। सुबह से बादल बरस रहे थे जमकर, जिससे घर से निकलते ही घुटनों घुटनों तक पानी में से होकर डाबड़ा चौक तक पहुंचे। वहां से फब्बारा चौक और वहां से दूसरे ऑटो में बाइपास तक। बादल छाये हुए थे आसमान पर और भीगी भीगी हवा चल रही थी। यह संकेत था कि आज की यात्रा बहुत सुहावने मौसम में होने वाली है। सच में, 
सुहाना सफर और यह मौसम हंसीं
हमें डर कि हम खो न जायें कहीं ! 

बाहर देखने के लिए कुछ खास न था 
 बस, कुछ कुछ बूंदें खिड़की के शीशों से टकरा रही थीं या दूर दूर तक रेगिस्तान का ही दृश्यसुहाना सफर और यह मौसम हंसीं
हमें डरते कि हम खो न जायें कहीं। बेशक कहीं-कहीं हरियाली भी दिखाई देती रही। हां, बस के अंदर जरूर महिलायें पहले परम्परागत गीत गाती रहीं, फिर हरियाणवी व राजस्थानी मिश्रित नृत्य कर अपनी बोरियत मिटाने लगीं। कुछ  गीत वीडियो पर भी देखे, सुने।
इस तरह तीन बजे तक सालासर आ गये हम। ‌एक घंटे के लिए यात्रा यहां स्थगित रखी ताकि सालासर में पूजा अर्चना कर सकें सभी। इस तरह एक घंटा कब निकल गया, पता भी नहीं चला। बादल यहां भी साथ साथ रहे, सड़कें भीगी और कुछ कीचड़ से लथपथ भी लेकिन पूजा में कैसी बाधा। बाहर निकले, चाय की दुकान खोजी और फिर चाय की चुस्कियां, बिस्कुट डुबो डुबो कर। जहां न पहुंचे कवि, वहां भी मिल जाये पारले जी बिस्कुट और सस्ता व टिकाऊ। 
अब तक सभी लोग सालासर में पूजा कर आ गये तो फिर काफिला आगे मुकाम की ओर बढ़ चला। दिन भर बादल साथ ही रहे, कहीं कहीं बूंदें भी भिगोती रहीं। मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन याद आता रहा, भिगोता रहा। रस्ता जाकर सात बजे सायं खत्म  हुआ। मुकाम आ पहुंचे थे। रात्रि विश्राम के लिए पहले से संजय गौतम ने जसमां देवी धर्मशाला में एसी कमरे की व्यवस्था कर रखी थी, इसलिए पहली बार की तरह कोई फिक्र नहीं थी कि कहां जाना है और कहां रात का ठिकाना है। पर यह भी कमाल है न। चौ भजनलाल का पत्नी प्रेम कि उनके रहते ही जसमां देवी धर्मशाला बनवा दी। वैसे डेढ़ साल पहले मंडी आदमपुर के उपचुनाव में जसमां देवी ने भी मुझसे बातचीत के दौरान बड़ी सरलता से स्वीकार किया था कि चौधरी साहब उन्हें बहुत प्यार करते थे। यह कह कर वे शरमा गयी थीं। 
विकास ने धर्मशाला जाते ही कहा कि अच्छा, हिसार से पत्रकार आये हो। यह रहा आपका एसी कमरा। कमरे में आते ही कुछ देर में थकान उतर गयी और चाय की तलब जाग गयी। इस बार धर्मशाला की राह में ही नयी चाय की दुकान खुल गयी है और साथ में क्लाथ सेल्समैन भी आ गया है। यह नयी रौनक है। हम बैंचों पर बैठ जाते हैं तो  सामने मोर नाच रहा है। यही तो है असली संदेश गुरु जम्भेश्वर का कि यह दुनिया जितनी मनुष्य की है, उतनी ही जीवजंतुओं व पशु पंछियों की भी। यही संदेश है विश्व भर में। कितनी बेफिक्री से नाच रहा है मोर और यहीं कुलांचे भरते हिरण भी दिख जाते हैं। चाय की चुस्कियों का स्वाद कुछ अनोखा हो जाता है। इस बार तो बिजली के पोल्ज पर तिरंगा लाइट्स भी मुकाम की खूबसूरती को बढ़ा रही हैं और मंदिर तक के रास्ते पर अंधेरा नहीं मिलता। बाहर फर्श गीला है बारिश से और अंदर परिक्रमा कर मस्तक नवा रहे हैं लोग। 
जल्द धर्मशाला पहुंचते हैं और थकावट के चलते नींद हमें अपनी बाहों में मां की तरह लेकर सुला देती है। बाहर भी श्रद्धालु हैं तारों की छांव में। यानी अमावस्या का मेला भरने लगा है। 
सुबह सवेरे उठे, फटाफट स्नान और फिर समराधल की ओर बढ़ चले, जहां तपस्या की गुरु जम्भेश्वर ने। वहां तक नारियल बेचने वाले हमसे पहले डेरा लगाये बैठे हैं। यज्ञ में घी, नारियल अर्पित करते हैं और मस्तक नवा बाहर ठंडी ठंडी हवा में थकान मिटाते हैं। फिर नीचे बस की ओर। बस, भंडारे के पास रोक देते हैं और गर्म गर्म चाय के बाद कढ़ी के साथ मीठा मीठा हलवा और गर्म गर्म चपाती। बस, यहीं सबको टाट पर बैठकर लंगर लेना है और मुकाम में कोई होटल नहीं, कोई ढाबा नहीं, कोई आलू के परांठे नहीं। यहीं मीठे हलवे व कढ़ी से सबका स्वागत्। कोई बड़ा हो या छोटा, लंगर और पंगत में ही खाना मिलेगा। शुद्ध और स्वच्छ। रात का खाना और सुबह का नाश्ता यहीं इसी लंगर में किया। बड़े हाल में एक समय कम से कम चार पांच सौ लोग लंगर लेते दिखते हैं। बहुत से रेल से, बस से या फिर वीडियो कोच या फिर अपनी गाड़ियों में हर अमावस्या को आते हैं और घी नारियल  हवन में अर्पित करते हैं, गऊशाला में अनाज भेंट करते हैं और मोर हैं कि खूशी में नाचते हैं, हिरण कुला़चें भरते भरते मानो गुरु जम्भेश्वर का आभार व्यक्त कर रहे होते हैं। 
सुबह साढ़े नौ बजे से वापसी शुरू ! 
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी।