अश्विनी जेतली की नई साप्ताहिक ग़ज़ल
एक वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ साथ अश्विनी जेतली बेहतरीन शायर भी हैं
इक ज़र्द पत्ता पेड़ पर ऐसे लटक रहा था
तन्हा तेरे बगैर मन, जैसे भटक रहा था
हम हो गए उसी के, न हुआ कभी जो अपना
आँखों में अधूरा सा, वो सपना तड़प रहा था
छत पर था वो, ज़मीन पर, तारे थे गिर रहे
ज़ुल्फ़ों से यार शबनमी मोती झटक रहा था
वो शक़्स जिस को हमने, रहनुमा था माना
राहों ने की सनद, कि वो राह भटक रहा था
पूछा जो ठिकाना सच का, तो झूठ ने बताया
सच में वही तो सच था, जो सूली लटक रहा था