निक्का मेरा यार
-कमलेश भारतीय
बचपन का दोस्त निक्का बहुत याद आ रहा है । पोलियो के कारण उसके पांव काम नहीं करते थे । पांव का काम वह हाथों से लेता था । मैं पतंगबाजी में बहुत मज़ा लेता और वह कड़ी धूप में पीछे बैठा डोर की चरखड़ी संभाले रहता और पेंच लग जाने पर लगातार सलाह देता रहता । जब हम सफल हो जाते तो चरखड़ी लहरा कर हिप हिप हुर्रे भी करता । वह एक प्रकार से मेरे पांव बना हुआ था । मेरे से पहले ममटी पर चढ़ कर हाथ पकड़कर मुझे ऊपर चढ़ने में मदद करता । किसी से झगड़ा या छोटी मोटी लड़ाई हो जाती वह नीचे से विरोधी की टांगें कस कर जकड़ लेता और मुझे मारने को कहता । मैं उसके कारण बाहुबली था ।
फिर हम स्कूल जाने लगे , वह शाम होने की इंतज़ार करता । खूब गाने सुनाता । एक गाना तो हमारे लिए समर्पित था क्योंकि पिता जी गांव के नंबरदार थे और वह जानबूझकर गाता :
ओ पिड देया नम्बरदारा , अपने मुंडयां नूं समझा
इह पग्गां बंधदे मोचमियां ते लड़ लैंदे लमका...
इस शरारत का हम पूरा मज़ा लेते ।
मेरी पतंगबाजी के लिए वह बुद्धू और पाशी से बढ़िया कंचेवाली डोर बनाने के गुर सीखता । फिर हम चोरी चोरी कांच कूट कर अपनी डोर बनाते । मेरी दायें हाथ की तर्जनी सदैव कंचे की डोर से छिली रहती । फिर कब पाशी की बेटी उसके दिल में समा गयी ? वह डोर के गुर सीखने के बहाने देर शाम भी वहां जाता । पर एक विकलांग को कोई बेटी क्यों देता ? लड़की की शादी हो गयी और हमारा निक्का फिर उदास सा रहने लगा ।
इतने वर्षों के बीच मैंने पढ़ाई पूरी की । टीचर , फिर प्रिंसिपल और फिर रिपोर्टर । चंडीगढ़ से हिसार तक का सफर कब तय हो गया ? पता नहीं चला । निक्के ने पतंग व मीठी गोलियां बेचने की दुकान भी खोली । शायद पतंग उसे भूले बिसरे प्यार की याद दिलाती रही । पतंग से वह कभी दूर नहीं रहा । कभी-कभार नवांशहर जाता तो मोहल्ले में केशी-केशी करके वह मुझे मिलने आता । मैं वही गाना गाने को कहता पर वह शरमा जाता । आखिरी बार कब मिला , कुछ पता नहीं , याद नहीं पर पतंग आसमान में उड़ते देखता हूं तो निक्के को अपने पीछे पाता हूं ।
अफसोस निक्का नहीं रहा । अब मैं पतंगबाजी किसके सहारे करूंगा ?