नैनीताल और मुक्तेश्वर के तट पर
-कमलेश भारतीय
अब एक ऐसी जगह आपको ले जा रहा हूं , जिसे लेक सिटी के रूप में जाना जाता है यानी नैनी झील के आसपास बसा एक पर्वतीय क्षेत्र । बहुत खूबसूरत । प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर और गर्मी में भी ठंडक का अहसास ।
शिमला पिछले वर्ष चार बार जाने का सिलसिला बना तो परिवार ने कहा कि अब जाना है तो नैनीताल जाना है । पता नहीं कब सबब बनता कि मेरी बेटी के मामा की बेटी ने तारीख तय कर दी तीन जुलाई । आना है तो आओ नहीं तो हम तो जाएंगे । लीजिए यहां भी तारीख स्वीकार की और बेटी रोज गूगल पर नैनीताल की खूबसूरती दिखा कर लुभाने लगी ताकि जाने से इंकार न कर दूं । छोटी बेटी और दामाद भी तैयार हो गये । इस तरह कारवां बनता गया । रही सही कसर हमारी साली साहिबा ने मोहाली से पहुंच कर पूरी कर दी ।
इस तरह हमारे लोग सुबह सबेरे पांच बजे कार से यात्रा के लिए निकले । जबकि दूसरे यात्री जालंधर से रेलगाड़ी में सवार हुए । दिल्ली , गाजियाबाद, साहिबाबाद आते गये और हम ट्रैफिक में रेल पेल होते रहे । इस उम्मीद में कि इनसे कुछ घंटों में छुटकारा मिलने ही वाला है ।
गजरौला के पास पंजाबियों के मोगा नाम से तीन तीन रेस्तरां हैं । जहां वाशरूम तक एयरकंडीशन्ड । वाह रे । गर्मागर्म पकौड़े न खाए तो काहे के पंजाबी और कैसा पंजाबी रेस्तरां ।
फिर शुरू हुआ सफर सपनों की झील का । काठगोदाम से लेकर नैनीताल तक का रास्ता गुलजार के गाने के बोल गुनगुनाने को मजबूर कर गया :
दिल ढूंढता हैं फिर वही
फुर्सत के रात दिन ,,,
लगभग तीस किलोमीटर का नैनीताल तक का यह रास्ता बहुत खूबसूरत हैं । उधर हमारे पाइन गार्डन से लगातार नारायण के फोन आ रहे थे कि कहां पहुंचे ? वह नैनीताल के टोल पर खड़ा दिन भर इंतजार करता रहा। आखिर साढ़े चार बजे नैनी झील के शहर पहुंचे । गाड़ी के रंग और नम्बर के चलते नारायण हमें मिल गया और मोटरसाइकिल आगे लगा पीछे पीछे आने का संकेत देता रहा । सारे होटल , सारी रौनक छूटती गयी और हम सोचते रहे कि कहां है यह पाइन गार्डन ? आखिर पहाड़ की चोटी पर बिरला स्कूल से पहले पाइन गार्डन आ गया ।
पूरे बारह घंटे के सफर के बाद गैस्ट हाउस पहुंच पाए । सामान टिकाया। कुछ राहत की साँस ली और इतने में गोपी आ गया । चाय पानी पूछने । काॅफी के प्याले और मिक्स्ड पकौड़े । सारी थकान उतर गयी । उधर रेलगाड़ी वाले सवार काठगोदाम से उतर कर किराए की टैक्सी से अपने होटल पहुंच गये ।
उनका होटल नैनी झील के पास था । इसलिए किराया भी ज्यादा । पता नहीं पहाडों के पानी से मुझे क्या हो जाता है कि पहला गिलास पीते ही लूज मोशन्ज लग जाते हैं । दवाई साथ रखता हूं और खा लेता हूं । पर इस बार सुबह तक अस्वस्थ ही रहा । इसलिए बच्चों से कहा कि आप लोग घूम फिर आओ । मैं गैस्ट हाउस में ही आराम करता हूं ।
दूसरी सुबह बच्चे चले गये और गोपी ने किसी मां की तरह दिन भर मेरा ध्यान रखा । बार बार आकर चाय और एकाध ब्रैड पीस खिला ही जाता । सच । यह पहाड़ की निश्छलता मैदानों में कहां ?
शाम को परिवार घूम फिर कर आ गया । कई ताल देख आए । भीमताल का नाम याद रहा । रात को होटल से भी परिवार हमारे पास ही आ गया । खूब रौनक । ऐसे लगा कि जैसे कोई शादी ब्याह हो । इतने लोग तो आजकल शादी के गीत संगीत में भी नहीं आते । अंताक्षरी खेली । कुछ पुरानी यादें और ठहाके । रात कब बीत गयी पता नहीं चला ।
सब नहाए धोए और आलू के परांठों के नाश्ते के बाद नैनी झील पर पहुंच कर नयी टैक्सी लेकर मुक्तेश्वर की ओर चल दिए । भुवाली से लेकर शयामसुख तक टैक्सी चालक हमारे गाइड का काम भी करता रहा । चाय बागान हैं श्यामसुख में । उत्तराखंड चाय का पैकेट खरीदा सबने । बागान में जाने की टिकट बीस रूपया । कोई नहीं गया । चाय की पत्तियां देखनी हैं वह बाहर ही दिख रही हैं । फिर अंदर क्या और बाहर क्या ?
इसके बाद आए सेब के बाग । इनके अंदर जाने की की कड़ी मनाही । सेब पेड़ों पर झूल रहे हैं और हम सड़क किनारे इन्हें ललचाती नजरों से देख रहे हैं । लोमड़ी की तरह सेब खट्टे हैं कह कर कुछ फोटो खींच कर चल पड़े ।
एक होटल में खाना खाया । कुछ आराम किया और यात्री फिर निकर पडे मुक्तेश्वर की ओर । यहां भी कम से कम दस किलोमीटर का रास्ता बहुत ही खूबसूरत । पेड़ों की टहनियां दोनों ओर से गले मिलतीं प्रतीत हो रही थीं । मानो प्रकृति ने पर्यटकों के स्वागत् में वंदनवार बना दिए हों । घनी छाया ।
आखिर पहुंचे मुक्तेश्वर । सामना हुआ गाइडों की भीड़ से । दो सौ रूपये से कम में तैयार नहीं कोई । आखिर एक युवा डेढ़ सौ में मान गया । वह संकीर्ण रास्ते से महादेव का मंदिर दिखाने चला । बारिश की नमी अभी पगडंडी पर थी । पेड़ों के साये में महादेव के मंदिर की ओर कदम दर कदम । आधे यात्री तो गये ही नहीं हमारे । वहीं इंतज़ार करने की कह कर चाय पानी पीने लगे ।
राह में एक प्वाइंट पर गाइड रूक गया और पहाड़ देखने को कहा । सचमुच यह कोण पूरा महादेव के आकार का था । बस । गाइड के करने के पैसे पूरे । उसी ने हमारी फोटो खींची । फिर एक जगह पानी की बोतल का मोल तीस रूपये । मैंने कहा -यार बीस की आती है । उन्होंने इंकार नहीं किया पर सच कहा कि जितना ऊपर जाएंगे रेट बढ़ेगा । वाह । मैंने भी नहले पे दहला मारने की तरह कहा कि हम भी इतनी ऊंचाई पर बोतल खरीदने आए हैं । इस पर दुकानदार की हंसी छूटने गयी और बात पच्चीस रूपये पर निपट गयी ।
ऊपर महादेव का मंदिर आते ही गाइड महाशय चलते बने । छोटा सा मंदिर । बहुत शांति । पहली बार किसी पुजारिन को मंदिर में पूजा करवाते और तिलक लगाते देखा । जहां हिमालय की ओर जाते समय पांडवों ने पूजा की थी । ऐसा माना जाता हैं ।
सभी बाइस गाइड बेरोजगारी का रोना रो रहे थे कि साहब दो सौ रूपये न लें तो बरसात के दिनों में खाएं कहां से ? उन दिनों तो पहाड़ों पर कोई नहीं आता । यही थोड़े बहुत पैसे काम आते हैं । सच । अंग्रेज़ी में बाल कहानियों में पंछियों के रेनी डेज के लिए अनाज एकत्रित करने और बचाने की बात याद आ गयी । यह मुक्तेश्वर स्विट्जरलैंड ने गोद ले रखा है । जगह जगह ऐसे बोर्ड लगे हैं । साफ सुथरा रखने का आग्रह भी हैं । हम अपने पहाड़ों को अपना कर , गोद लेकर इन्हें साफ सुथरा क्यों नहीं रख सकते ?
मुक्तेश्वर से लौटते शाम का अंधेरा उतर चुका था । नैनी झील में किनारे की रोशनियां झिलमिला रही थीं । सैलानी के तौर पर कुछ चहलकदमी की और बच्चों ने कुछ खरीदारी की । तभी मेरे दोहिते ने एक दुकान से बड़ा सा टोप सिर पर रख लिया और चौकन्ने दुकानदार ने कहा कि फोटो खींची तो पैसे लगेंगे । वाह । कितनी बड़ी बात । एक फोटो खिंचवाने और टोप लौटाने के भी पैसे । इंसानियत कहां गयी ? दुकान से इतना सामान खरीद लिया पर एक फोटो नहीं खींच सकते ?
ऊपर पाइन गार्डन से अपनी गाड़ी मंगवाई और पहुंचे अपने गैस्ट हाउस । सब थके थे । बस । खाना खाया और नींद आ गयी । हां , गोपी ने मेरी पत्नी के सुझाव पर पहाड़ी सब्जी बनाई थी । जिसका स्वाद याद रहेगा । राह भर भुट्टे भी खाए जोकि एकदम सफेद थे । पंजाब की तरह पीले नहीं । ऐसे लगा मानो बर्फ के हों ।
अब वापसी से पहले आखिरी सुबह एक घंटे के लिए फिर नैनी झील को देखने और नौका विहार का मन हुआ। जल्दी नाश्ता किया । कुछ टिप दी सभी को । हंसते मुस्कुराते चले । नैनी झील में भी अपने अपने स्थान बांट रखे हैं नौकाओं वालों ने । वाह । पानी में जाने पर भी व्यापार । यह दूसरा चेहरा है पहाड़ का ।
अब हमें लौटते समय जाना था लालकुआं । जहां आशा शैली ने कवि गोष्ठी रखी थी । मैंने वास्ता दिया कि हिसार का रास्ता लम्बा है । सिर्फ एक घंटे के लिए रूक सकूंगा । हल्द्वानी से एक साइड बीस किलोमीटर जाकर लालकुआं आ गया और दिन के दो बज गये थे । फोन पर सम्पर्क कर गोष्ठी स्थल पर पहुंचे । अंतरा सवि भी आई थीं । हम तीन लोग कहानी लेखन महाविद्यालय के माध्यम से परिचित हुए थे । खैर शैलसूत्र के नये अंक का विमोचन किया । अपने लघुकथा संग्रह इतनी सी बात की प्रतियां भेंट कीं और ठीक एक घंटे बाद शुभकामनायें देकर निकल पड़े । दिल्ली तक वही भीड़ हमारे स्वागत् में थीं । सांस लेना और कार का सरकना जारी था । सच । लालकुआं जैसे छोटे छोटे साहित्यिक पड़ाव इस यात्रा को सुखद बना देते हैं । रात्रि के तीन बजे घर पहुंचे । सच , दिल अभी भरा नहीं । फिर आऊंगा नैनीताल ।