लघुकथा/ प्यार की धुन
मैं चौक पर किसी सवारी की इंतज़ार में खड़ा था । कुछ फासले पर एक विकलांग भी शायद इसी उम्मीद में खड़ा हुआ था । मैले कुचैले , गंदे से कपड़े पहने बैसाखियों के सहारे । मैं सोचने लगा कि इसे कौन अपने ऑटो में बिठायेगा ?
तभी एक ऑटो रुका । मैं पिछली सीट पर बैठ गया । वह ऑटो चालक उतरा और उस विकलांग को बड़े प्यार से अपने साथ वाली सीट पर बैठने में उसकी मदद करने लगा । मेरा भी हृदय पिघल गया । मैंने फैसला किया कि इसका किराया मैं ही चुका दूंगा ।
कुछ स्टाॅपेज के बाद उस विकलांग का स्टाॅपेज आ गया । इससे पहले कि मैं कहता कि किराया मैं दूंगा ऑटो चालक ने उसे उतने ही प्यार से सहारा देकर उतारा और बैसाखियों के सहारे खड़ा कर दिया । और जैसे ही उस विकलांग ने पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाला , ऑटो चालक ने बिना कुछ कहे ऑटो आगे बढ़ा दिया ।
मैं ऑटो चालक के इस पुनीत भाव को देखकर जैसे हैरान था और भौचक्का भी । इसे कहते हैं सहयोग । बिना किसी प्रकार की हमदर्दी दिखाये या शोर शराबा मचाये ... और जैसे कहीं कोई बांसुरी की मधुर धुन बजने लगी। ... या कहीं दूर मंदिर की घंटियां सुनाई देने लगीं। ...
-कमलेश भारतीय