ग़ज़ल / अश्विनी जेतली
सोचता हूंँ, सोच का, क्यूँ खेत बंजर हो गया
था नगीना, बिन तेरे जो आज कंकर हो गया
भीड़ सड़कों पर बड़ी है, फिर भी लेकिन
इक शख़्स के जाने से सूना है शहर हो गया
उदासियाँ, बेचैनियाँ, लाचारियाँ हैं हर तरफ
हमसफ़र तेरे बिना बेनूर दर घर हो गया
खामोशियों , वीरानियों , बेज़ारियों से भर गई
ख़ुशनुमा-सी ज़िन्दगी का अब ये मंज़र हो गया
तेरे जाने पर बरसा आँखों से सावन इस कदर
कुछ दिनों में एक सहरा भी समंदर हो गया