प्रसिद्ध अभिनेत्री दीप्ति नवल की पुस्तक “ए कंट्री कॉल्ड चाइल्डहुड” पर कमलेश भारतीय क्या लिखते हैं, पढ़िए
-*कमलेश भारतीय
इन दिनों प्रसिद्ध अभिनेत्री दीप्ति नवल की पुस्तक आई है – “ए कंट्री कॉल्ड चाइल्डहुड” । दीप्ति नवल अमृतसर, जालंधर , लुधियाना , चंडीगढ़ व रायपुर में पब्लिशर द्वारा आयोजित प्रमोशनल प्रोग्रामों में गयीं और श्रोताओं से बातचीत की । सवालों के जवाब दिये । अपने ऑटोग्राफ के साथ किताब दी । काश ! ऐसा प्रमोशनल प्रोग्राम कोई हिंदी प्रकाशक भी किसी लेखक के लिए आयोजित करता । हिंदी प्रकाशक किताब प्रकाशित कर प्रमोशन भूल जाता है और यह काम लेखक को खुद करना पड़ता है । खैर । मेरा सम्पर्क किताब पढ़ते हुए दीप्ति नवल से हो गया और यह मैंने किताब को पढ़ने के बाद ही लिखा और फोटोज खुद अपनी पसंद के दीप्ति नवल ने ही भेजे हैं । मेरे मित्र राजेंद्र राजन् ने दीप्ति नवल के पेज पर लिखा था मुझे कि यह कभी नहीं होगा और मैंने वहीं लिखा था कि यह होगा और आप पढ़ोगे इसी फेसबुक पर ।इसके लिए मैं हिमाचल की प्रसिद्ध रंगकर्मी अमला राय और मेरे चार दशक पुराने चावलों जैसे खुशबूदार मित्र हरीश नवल का हार्दिक आभारी हूं । वे दीप्ति नवल के चचेरे भाई भी हैं और इस दौरान अमेरिका में होने के बावजूद खूब जानकारी दी अपनी बहन की और बोले बहुत मूडी है पर आपसे बात कर गयीं , कमाल है ।यह समीक्षा नहीं , एक पाठक पर पड़ा प्रभाव मात्र है और इसे पहले खुद दीप्ति नवल ने पढ़ने के बाद ही स्वीकृति दी कि अब उपयोग कीजिए ।
'मैंने अपने घर चंद्रावली की छत से एक पत्थर का टुकड़ा साथ की मसीत के गुम्बद की ओर फेंका -आखिरी बार । गुम्बद पर बैठे कबूतर उड़ गये । मैंने एक आह भरकर खुद से पूछा -जैसे ये कबूतर उड़कर वापिस आ जाते हैं , क्या मैं भी कभी अपने इसी घर में अमेरिका से वापिस आ पाऊंगी ?
सच कहा , सोचा दीप्ति नवल ने हम कभी वहीं , वैसे के वैसे जीवन में वापिस नहीं लौट सकते लेकिन जो लौट सकती हैं -वे होती हैं मधुर यादें । यही इस किताब के लेखन का केंद्र बिंदु है , बचपन लौट नहीं सकता लेकिन उसकी यादें जीवन भर , समय-समय पर लौटती हैं ।
दीप्ति नवल ने अपने बचपन और टीनएज के कुछ सालों की यादों को इस पुस्तक में पूरे 380 पन्नों में बहुत ही रोचक ढंग से लिखा है । वैसे इसे दीप्ति नवल की आत्मकथा का पहला पड़ाव भी माना जा सकता है । और खुद दीप्ति ने भूमिका में लिखा है कि इसे मेरी बचपन की कहानियां भी कहा जा सकता है । छोटी से छोटी यादें और उनसे मिले छोटे-छोटे सबक , सब इसमें समाये हुए हैं । जैसे बहुत बच्ची थी तो दीप्ति अपनी नानी से कहती ' चीनी दे दो , चीनी दे दो ' कहती रहती और, जब चीनी न मिलती तो कहती -लूण ही दे दो । यानी समझौता और सबक यह कि फिर समझौते न करने की कसम खाई ली । ज़िंदगी में किसी भी कीमत पर कोई भी समझौता नहीं । जब मां दूध बांटने जाती हैं और नन्ही दीप्ति साथ जाती है । एक दिन जब सारा दूध बंट चुका होता हो तो एक बच्चा दूध मांगता है और खत्म होने की बात सुनकर जो चेहरे पर उदासी आती है , निराशा होती है , वह दीप्ति को आज तक नहीं भूली और वे कोई पेंटिग बनाने की सोचती रहती हैं ।
दीप्ति नवल एक एक्ट्रेस ही क्यों बनीं ? इसका जवाब कि इनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि । दादा बहुत बड़े वकील थे लेकिन अमृतसर के दो तीन सिनेमाघरों में एक बाॅक्स बुक रखते और शाम को कोर्ट से लौटते हुए पहले किसी न किसी फिल्म का कुछ हिस्सा देखकर ही घर आते । मां हिमाद्रि भी कलाकार , डांसर और स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान के लिए नाटक करती रहीं । सचमुच एक्ट्रेस ही बनना चाहती थीं । पर दीप्ति की दादी ने एक दिन इनकी मां को कहा कि मेरी 'वीमेन कान्फ्रेंस'की औरतें कहती हैं कि तेरी बहू तो ड्रामे करती है । बस । दादी की बात दिल को ऐसी लगी कि वह दिन गया , फिर कभी मंच पर कदम नहीं रखा । इनके एक कजिन इंदु भैया बिल्कुल देवानंद दिखते थे और 'दोस्ती' फिल्म में छोटा सा रोल भी मिला लेकिन मुम्बई से असफल रहने पर लौट आये । इंदु भैया का देवानंद की लुक में फोटो भी है ।
पर दीप्ति नवल जब बच्ची थी तब प्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी अमृतसर एक नाटक मंचन करने आये और दीप्ति अपने पिता के साथ गयीं । भरी भीड़ में अपने करीब से निकलते बलराज साहनी को बहुत धीमी आवाज में कहा कि ऑटोग्राफ प्लीज , वे थोड़ा आगे निकल गये । फिर अचानक लौटे और हाथ बढ़ाया ऑटोग्राफ बुक लेने के लिए । ऑटोग्राफ किये और कहा -माई डियर । यदि मैं इसी तरह ऑटोग्राफ देता रहा तो मेरी ट्रेन छूट जायेगी । यह वही उम्र थी जब दीप्ति ने फैसला कर लिया कि मैं एक्ट्रेस ही बनूंगी । किस किस एक्ट्रेस से प्रभावित रही यह पूरा खुलासा किया है -फिल्ममेनिया अध्याय में । कभी मीना कुमारी तो कभी वहीदा रहमान तो कभी शर्मिला टैगोर तो कभी अमृतसर का काका यानी राजेश खन्ना तो कभी साधना । साधना कट भी बनवाया । कत्थक सीखा , यूथ फेस्टिवल में पुरस्कार जीते लेकिन जब टिकटों के साथ दीप्ति के प्रोग्राम में जब लाइट चली गयी और मां ने कुछ हुड़दंग देखा तब इस तरह के प्रोग्राम से तौबा करने का आदेश दे दिया और मां की तरह खुद दीप्ति भी मन मसोस कर रह गयी । पर सफर जारी रहा । कोई सोचे कि दीप्ति ने अचानक से पेंटिंग शुरू कर दी । यह शौक भी बचपन से ही है । एक आर्ट स्टुडियो में बाकायदा कला की क्लासें लगती रहीं । और अब तो मनाली के पास बाकायदा पेंटिंग स्टूडियो है । हालांकि फिल्मी दुनिया का सफर कैसा रहा ? यह अनुभव नहीं लिखे गये लेकिन एक बात बहुत प्यारी बात लिखी कि जिस दीप्ति नवल को कत्थक नृत्य आता था , उससे किसी फिल्म में किसी निर्देशक ने एक भी डांस नहीं करवाया । यह हिंदी फिल्मों की भेड़चाल को उजागर करने के लिए काफी है कि कैसे किसी कलाकार को एक ही ढांचे में फिट कर दिया जाता है । फिर दीप्ति ने फिल्में भी बनाईं और सीरियल्ज भी, निर्देशन भी किया । वह एक्टिंग से आगे बढ़ गयी । वैसे दीप्ति नवल को वहीदा रहमान का 'गाइड' फिल्म के गाने 'कांटों से खींच के ये पायल' बहुत पसंद था और वहीदा रहमान की लुक की तरह मंच पर किसी और गाने पर प्रोग्राम भी दिया था । वहीदा रहमान की लुक में भी फोटो है । कविता लेखन भी स्कूल के दिनों में ही शुरू कर दिया था और इनकी सीनियर किरण बेदी ने इनकी कविता पढ़ी तो कहा कि अच्छा लिखती हो और लिखती रहो । अमृता प्रीतम से मिली तो उन्होंने भी कहा कि आप कविता लिखा करो । इनका काव्य संग्रह 'लम्हा लम्हा ' इससे पहले आकर चर्चित हो चुका है ।
पिता उदय चंद्र एक चिंतक , लेखक और अंग्रेजी के प्रोफेसर थे । दीप्ति उन्हें 'पित्ती' कहती थी यानी पिता जी का शाॅर्ट नेम पित्ती । सुबह अपनी बेटियों को हारमोनियम बजा कर जगाया करते थे । पंडित जवाहर लाल नेहरु , सर्वपल्ली राधाकृष्णन् और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जैसे विद्वानों तक सम्पर्क रहा । पुस्तकें लिखीं । काॅलेज में प्रोफैसरी की और दोस्त से कहा -यार तीन सौ रुपये में क्या होगा ? फिर इसी प्रोफैसरी से प्यार हो गया । इसी ने अमेरिका तक पहुंचाया । हालांकि वहां भी कम मेहनत नहीं करनी पड़ी । दिन में किसी लाइब्रेरी में तो रात में कहीं सिक्युरिटी गार्ड पर बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए सब खुशी खुशी करते गये और आखिर एक साल के भीतर बच्चों को अमेरिका बुला लिया ।
मैंने इसलिए शुरू में इस पुस्तक को दीप्ति नवल की आत्मकथा का पहला भाग कहा । इसमें बचपन को ही समेटा है । स्कूल के दिनों की शरारतें , सहेली का पीछा करने वाले लड़के की पिटाई , भाग कर बैलगाड़ियों की सवारी के मजे ,मोमबत्तियों के साये में नकल और पेपर रद्द लेकिन दीप्ति का कहना कि उसने कोई नकल नहीं की थी । नीटा देवीचंद का वो रूप जो बाद में मनोवैज्ञानिक शब्दावली में 'लेस्बियन' समझ में आया । पागलखाने में दाखिल नीटा देवीचंद को देखने जाना और फिर बरसों बाद पता लगना कि विदेश में नीटा देवीचंद ने आत्महत्या कर ली । शिमला में नीटा की मां को बुलाकर मिलना । इसी तरह मुन्नी सहित कितनी सखियों की यादें । यह सब संवेदनशील दीप्ति के रूप हैं । इतना सच कि फिल्मों में देखे कश्मीर को देखने के लिए अकेली घर से भाग निकली और रेलवे-स्टेशन पुलिस ने वापिस अमृतसर पहुंचाया । और पापा का कहना कि बेटा एक रात घर से भागकर तूने मेरी बरसों की कमाई इज्जत मिट्टी में मिला दी पर बाद में एक सफल एक्ट्रेस बन कर 'पित्ती' यानी पिता का नाम खूब रोशन भी किया । एक पिता का दर्द बयान करने के लिए काफी है । यह भी उस समय की फिल्मों के प्रभाव को बताने के लिए काफी है कि बालमन पर ये फिल्में कितना प्रभाव छोड़ती थीं । कभी देशभक्ति उमड़ती थी तो दीप्ति नवल गीत गाती थी -साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल या हकीकत फिल्म के गीत ।
। अमृतसर की बहुत कहानियां हैं । इन कहानियों में भारत पाक विभाजन , सन् 1965 और सन् 1967 के युद्धों की विभीषिका, ब्लैक आउट के साथ साथ बर्मा के संस्मरण कि कैसे मां का परिवार वापिस पहुंच पाया । विश्व युद्ध की झलक और बहुत कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का मार्मिक वर्णन । यह सिर्फ बचपन की स्मृतियां नहीं रह गयीं बल्कि अपने समय , समाज और देश का एक जीवंत दस्तावेज भी बन गयी हैं । अमृतसर के जलियांवाला बाग का मार्मिक चित्रण । वे वहां काफी देर तक बहुत भावुक होकर बैठी रहीं और यह प्रभाव आज तक बना हुआ है । सिख म्यूजियम और बाबा दीप चंद का फोटो । बहुत से फोटोज है ब्लैक एड व्हाइट ।
बहुत कुछ है इन यादों में छिपा हुआ । अमृतसर में अपने घर के पास के लोगों का चित्रण और एक एक दुकान की बात भी लिखी है ।अपने माता पिता के आपसी झगड़ों को भी लिखकर दीप्ति ने यह साबित कर दिया कि लेखन में वे कितनी सच्ची और ईमानदार हैं ।
बहुत सी क्लासफैलोज के जिक्र भी हैं जिनमें इनको बड़ी बहन की सहपाठी किरण पशौरिया जो बाद में किरण बेदी बनी -पहली महिला आईपीएस और नीलम मान सिंह जो बड़ी चर्चित थियेटर आर्टिस्ट हैं और पंजाब विश्वविद्यालय के इंडियन थियेटर विभाग की अध्यक्ष भी रहीं ।
तो लिखने को तो बहुत कुछ है , अगर लिखने पे आते ।
सबसे अंत में दीप्ति नवल के पिता हमारे नवांशहर के थे और यहीं इनका जन्म हुआ । यह भी कि सन् 1965 कै ब्लैक आउट में ही मेरे पिता जी का निधन हुआ था और मेरा जन्म भी सन् 1952 का है जो दिप्ति नवल का भी जन्म वर्ष है । यह किताब मुझे पंजाब के अमृतसर , नवांशहर, जलालाबाद और मुकेरियां तक ले गयी । जलालाबाद को छोड़कर सब देखे हुए हैं और इससे भी ज्यादा सुखद आश्चर्य कि वही वर्ष मैंने भी पंजाब के नवांशहर में बिताये और ऐसी बहुत सी स्मृतियां मिलती सी हैं पर जिस ढंग से , पूरी खोज , जांच पड़ताल से दीप्ति ने यह किताब लिखी , वह बहुत ही सराहनीय है और इसके लिए ढेरों बधाइयां ।
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।