साहित्य के इतिहास की प्रासंगिकता : क्यों और कैसे

साहित्य के इतिहास की प्रासंगिकता : क्यों और कैसे

नई दिल्ली. हिन्दी में समाजविज्ञान और मानविकी की पूर्व-समीक्षित त्रैमासिक पत्रिका 'सामाजिकी' का पहला व्याख्यान 11 अक्टूबर को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के एनेक्सी हॉल में सम्पन्न हुआ। 'सामाजिकी' गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज और राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली की संयुक्त पहल है जो भारतीय समाज मे हो रहे परिवर्तनों को समझने और समझाने के लिए ज्ञान के गहन शोध पर आधारित पत्रिका है। यह पत्रिका हिन्दी भाषा में शोध आलेख, साक्षात्कार और पुस्तक समीक्षा को छापती है।

 

कार्यक्रम की शुरूआत में पत्रिका के संपादक प्रो. बद्री नारायण ने श्रोताओं को सामाजिकी और व्याख्यान का परिचय दिया। इसके बाद प्रो. फ्रेंचेस्का ओर्सिनी ने 'साहित्य के इतिहास की प्रासंगिकता : क्यों और कैसे?' विषय पर केन्द्रित वक्तव्य दिया। इस दौरान उन्होंने कहा, "हर भाषा की एक शक्ति होती है। हमें अपनी भाषा की शक्ति का अहसास होना जरूरी है। हम देखते हैं कि हिन्दी की उर्दू के साथ एक ऐतिहासिक प्रतिस्पर्धा रही है। लेकिन हमें यह समझने की जरूरत है कि एक भाषा के बढ़ने का मतलब दूसरी भाषा का खत्म होना नहीं होता।" उन्होंने कहा कि प्रामाणिक इतिहास ठोस दस्तावेज और शिलालेख, सिक्के आदि जैसे प्रमाणों के आधार पर लिखा जाता है। जिस समय का इतिहास लिखा जाता है उस समय के साहित्य को बारीकी से देखने पर हमें उसके इतिहास के बारे में भी पता चलता है। आगे उन्होंने साहित्य का इतिहास विमर्श का हिस्सा क्यों नहीं बन पाया? इस विषय पर प्रकाश डालते हुए इसमें आने वाली अड़चनों को उजागर किया। उन्होंने कहा कि हमें अपनी बात रखने के लिए दूसरे को उखाड़ने की जरूरत नहीं है।

 

प्रथम सामाजिकी व्याख्यान कार्यक्रम की अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रो. सुभद्रा मित्र-चानना ने की। कार्यक्रम का संचालन डॉ. अमित सुमन ने किया। इस दौरान 'सामाजिकी' पत्रिका के चौथे अंक का विमोचन किया गया। कार्यक्रम के अंत में सामाजिकी पत्रिका की सह-संपादक डॉ. अर्चना सिंह ने सभी श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया।