डॉ जवाहर धीर द्वारा लिखित लघुकथाओं की पुस्तक "अब हुई न बात" की समीक्षा
पाठक पुस्तक पढ़ने के पश्चात एक बार अवश्य कहेगा -"अब हुई न बात"
कुछ दिवस पूर्व मुझे डॉ जवाहर धीर द्वारा लिखित लघुकथाओं की पुस्तक "अब हुई न बात" कूरियर द्वारा प्राप्त हुई। आस्था प्रकाशन द्वारा इस पुस्तक को प्रकाशित किया गया है। इसकी साज-सज्जा बेहद खूबसूरत है जिसके लिए प्रकाशक बधाई के पात्र हैं। लघुकथाओं को पढ़ने पर मुझे महसूस हुआ कि डॉ जवाहर धीर ने इन लघुकथाओं की रचना यूं ही नहीं की। इस बात से सभी परिचित हैं कि पेशे से वे एक डॉक्टर हैं। अपने इस पेशे के दौरान किसी भी रोगी का इलाज करते हुए वे अक्सर रोगी की नब्ज़ को देखते होंगे ताकि रोग की जड़ तक पहुँच सकें। इसी तरह वे समाज की नब्ज़ देखने में भी माहिर लगते हैं। यही कारण है कि उनकी लघुकथाओं में उन कुरीतियों, घटनाओं इत्यादि का उल्लेख आता है जिन्हें उन्होंने अपनी खुली आँखों से अपने आस-पास घटित होते देखा या महसूस किया है। पुस्तक में कुल 89 लघुकथाएं हैं जो उनके अनुभवों पर आधारित हैं। इन लघुकथाओं में कहीं पीड़ा दिखाई देती है, कहीं सामजिक कुरीतियां या भ्रष्टाचार और कहीं कुछ और। कोई भी पाठक आसानी से अनुमान लगा सकता है कि लेखक को भी इन सभी पीड़ाओं, दुखों और सुख-दुःख इत्यादि के अनुभवों से दो-चार होना पड़ा होगा। लघुकथाओं की भाषा बेहद सरल है जिसे कोई भी पाठक आसानी से समझ सकता है। लेखक कहीं भी अपनी बात को घुमा-फिरा कर नहीं कहता। हर बात सीधी व स्पॉट कही गई है। कहीं कोई घुमाव नहीं है। अन्यथा कई बार पाठक को लघुकथाएं पढ़ कर बहुत माथापच्ची करनी पड़ती है। डॉ जवाहर धीर ने `अपनी बात' लिखते हुए पुस्तक में लिखा है कि "आशा है कि पाठक इन लघुकथाओं को पढ़ते समय आनन्द की अनुभूति प्राप्त करेंगे, और लघुकथा के महत्त्व को समझेंगे"। उन्होंने शायद ठीक ही लिखा है। पुस्तक की प्रस्तावना प्रसिद्ध लेखक व पत्रकार कमलेश भारतीय ने लिखी है जोकि डॉ जवाहर धीर के बालपन के मित्र भी हैं। मुझे लगता है कि कोई भी पाठक पुस्तक पढ़ने के पश्चात एक बार अवश्य कहेगा -"अब हुई न बात।"
-मनोज धीमान