मनोज धीमान की पुस्तक "जागते रहो" (लघु कथा संग्रह) की कमलेश भारतीय द्वारा समीक्षा

`समाज को जगाने झकझोरने वाली लघु कथायें' 

मनोज धीमान की पुस्तक

-*कमलेश भारतीय
मनोज धीमान से कभी रूबरू होने का  मौका तो नहीं बना अभी तक लेकिन पाठक मंच और सिटी एयर न्यूज में हम रोज़ मिलते हैं । बस, मुलाकात होना बाकी है। वे भी मेरी तरह पत्रकार और साहित्यकार हैं । अभी अभी उन्हें गुरु नानक देव‌ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के साथ किसी महत्त्वपूर्ण तरीके से जोड़ा गया है । यह उनकी उपलब्धि कही जा सकती है । यह उनकी पहली किताब नहीं है । पर लघुकथा में महत्त्वपूर्ण संग्रह है -जागते रहो। न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने बहुत खूबसूरत ढंग से और पाॅकेट बुक साइज में प्रकाशित किया है । 
अब आते हैं इसकी लघुकथाओं पर। जैसा संग्रह का नाम है, वैसी ही समाज को जगाने व सचेत करने वाली चुटीली लघुकथायें हैं इसमें। सबसे ज्यादा शीर्षक लघुकथा ही जगाने वाली है-जागते रहो, किससे? सरकार की चाल ही नहीं, उसके दुष्प्रचार से क्योंकि धर्म, जाति में बांटने के बाद नये नये न्यूज चैनल चला कर आमजन को गुमराह करने की चाल भी सत्तापक्ष चल रहा है, इसलिए जागते रहो । यह सर्वविदित है कि आज मीडिया किस गहरे गड्ढे में गिर चुका है। मीडिया को सत्तापक्ष ने पालतू बना रखा है, इससे जागते रहो । मदर्ज़ डे को हम मोबाइल पर ही सेलिब्रेट करते हैं जबकि मां दवाई मांग रही है और उसे अनसुना किये जा रहा है बेटा। दिखावा जरूरी, संवेदना गायब। मोबाइल पर, मोबाइल से हमारे जीवन में, रिश्तों में आ रहे बदलाव पर कुछ और लघुकथायें भी हैं । सबसे बड़ी है -झुनझुना। बच्चे जो अपनी खेलों में मस्त रहते थे, झुनझुने से भी खुश हो जाते थे, वही बच्चे अब झुनझुने से नही, मोबाइल से खेलते हैं और दादा का लाया झुनझुना फेंक देते हैं । दंगों में जो आग की लपटें उठती हैं, उनसे दूसरों के घर जलाने वालों के घर भी जल जाते हैं, आग से वे भी कहां बच पाते हैं? यही संदेश देने की कोशिश है। फलों की रेहड़ी लगाने वाला खुद फल खा नहीं पाता और डाॅक्टर सलाह देता है कि बल खाया करो, यह हमारे समाज की बड़ी विडंबना है । नारी के मेकअप का एक पल जब तक खत्म होता है तब तक पति का बाहर जाने का मूड ही नहीं रहता ।  ऐसी ही रचना लिपस्टिक भी है । महिला रचनाकार के भ्रम में एक पाठक सरोज नाम की लेखिका को मिलने जाता है तो पता चलता है, वे दीना नाथ सरोज हैं यानी सरोज उनका उपनाम है और यह जानकारी मिलते ही प्रशंसक उल्टे पांव भाग लेता है । मेरा खुद का नाम महिलाओं से मिलता होने के चलते ये मज़ेदार स्थितियां   अनेक बार आई हैं ‌। ये लेखन के नहीं, महिलाओं के प्रशंसक हैं। भ्रष्टाचार और ईमानदारी की जंग निरंतर जारी है । दलबदल अब किसी गंगा स्नान से कम नहीं, सत्ताधारी दल में शामिल होना किसी गंगास्नान से कम नहीं रहा । लेखकों पर चोट है सोने की कलम। जब सत्ता सम्मान में सोने की कलम दे देती है तो लेखक सत्ता के खिलाफ कलम ही नहीं उठा पाता। काॅफी का स्वाद तब एकदम फीका और बेस्वाद हो जाता है, जब प्रेमिका अपनी शादी की खबर सुनाती है और तुम पहले जैसे नहीं रहे में काॅफी का स्वाद बढ़ जाता है जब पति बधा करवाता है और पति पत्नी एक दूसरे के लिए समय निकालते हैं। पुलिस ही डाॅन की भूमिका में हैं लेकिन टी शर्ट वाला बाबा जैसी लघुकथा इसमें अखरती है। गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो सुनील‌ ने लघुकथा पर भूमिका के रूप में गहरी टिप्पणी की है जो लघुकथा को समझने में काम आयेगी । काफी शोध के बाद लिखी लगती है भूमिका। 
मुखपृष्ठ भी खूबसूरत है। बधाई मनोज‌
पुस्तक : जागते रहो(लघुकथा संग्रह) 
लेखक : मनोज धीमान 
प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्ली। 
पृष्ठ : 96 
मूल्य: 225 रुपये