लघुकथा/संकरी गली
-*कमलेश भारतीय
-सुनो । आओ धूप में बैठें ।
-चलो । कुर्सियां लगा दी हैं । आओ ।
-आ गयी । आज कुछ यादें आ रही हैं ।
-कैसी ?
-शादी की और शादी के बाद की ।
-कैसी यादें ?
-वो जब मेरी डोली उतरी थी और वो रास्ता , वो गली कितनी तंग थी । नहीं ?
-हां । वह गली बहुत मशहूर थी सारे शहर में -भीड़ी गली के नाम से ।
-आज सोचती हूं कि वह गली हमारी शादी जैसी रही होगी ।
-कैसे ?
-किसी अनजान शख्स से शादी जीवन की शुरूआत किसी ऐसी गली जैसी जिसका कुछ अता पता न हो कि क्या होगा आगे ?
-हां । यह तो है कि आगे क्या हुआ फिर बताओ ?
-वैसे तो सब कुछ ठीक रहा पर आपकी फितरत न बदली ।
-कौन सी ?
-दूसरी महिलाओं के पीछे भागने की ।
-अरे ? ऐसा कहां और कब हुआ?
-आज तो सच मान लो कि आप कभी किसी तो कभी किसी के पीछे दीवाने होने में देर नहीं लगाते थे ।
-नहीं यार । ऐसा कुछ नहीं था ।
-तो क्या था ?
-क्या कहूं उस फितरत को ? क्या थी वह ?
-बस । कुछ बात पसंद आ जाती थी । इतना ही ।
-बस । इतनी ही ?
-तो और क्या ?
-यदि मुझे भी किसी पर पुरूष की इतनी सी बात पसंद आ जाती तो बच्चों का क्या होता ?
-अरे आप ऐसा कर ही नहीं सकती थी ।
-क्यों ? सारी पावनता का ठेका मैंने ही ले रखा था ? आपकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी ?
- छोड़ो यार । धूप का मज़ा लो न । अब तो हम पुरानी बातें छोड़ें ।
-मैं तो आपको पकड़ ही न सकी । बस । भागते ही रहे इधर से उधर । संकरी गली में । क्यों ?
-छोड़ो न ।
-तभी तो जिंदगी यहां तक आई कि मैं छोड़ती ही गयी और इतने में बच्चे बड़े हो गये । मेरी जिम्मेदारी पूरी हो गयी ।
-मैंने भी तो जिम्मेदारी निभाई ।
-ऐसे निभाते हैं ?
बड़ी तीखी नज़र से पूछा तो वह कोई जवाब न दे पाया ।
धूप अब एकदम बहुत चुभने लगी थी ।
*पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी, 1034 बी , अर्बन एस्टेट 2 , हिसार ( हरियाणा)