स्मृति-शृंखला/नरेन्द्र मोहन
कुआँ है कि ज़मीन में उलटा लटका हुआ गुंबद
अंधा सूनापन और बहरा सन्नाटा
झलकता हर शै में
देख कर आया हूँ अभी
टीले से सटे म्यूज़ियम में
झाँकता हूँ -
दिखते हैं एक संस्कृति के सदियों पुराने धुंधले निशान
कुंवेे में - आसपास
कुंवे की मुंडेर से अपना मुँह
ऊपर उठाता हूँ
मेरी ठोडी (चिबुक) पर पुरानी ईंटों की गर्द और राख
चिपक गयी है
उन निशानों को
धो-पोंछ कर मिटाने की
बहुत कोशिश की पर वे
और पक्के होते गए
दिनोंदिन
आज तक आती स्मृति-शृंखला
एक तरफ़ जीवंत रखती मुझे
दूसरी तरफ़ देखता हूँ
स्मृतियों को नष्ट करता
एक तेज़ चाकू
स्मृति शृंखला के तार
कोई छिन्न-भिन्न करता जाता
मैं उन्हें जोड़ता जाता, तो भी
बीभत्स, बेढंगी ध्वनियों
के अक्स आ घेरते
महाशून्य में
धकेलते मुझे
मरने की ध्वनियों के अक्स
एक कोलाज़ बनाते आते
रोज मुझ तक
मेरे पैरों और हाथों की उंगलियाँ
सुन्न हो रही हैं
लोथल का कुआँ
क्या सचमुच
मेरे साथ चला आया है?