राजनीति पर कमलेश भारतीय की कुछ लघुकथाएं
लघुकथा : दौड़
सबने सुना कि देश के बड़े नेता गंभीर रूप से बीमार हो गये । आनन-फानन में अस्पताल ले जाया गया । अस्पताल के बाहर सभी चैनलों के संवाददाता जुट गये । स्वास्थ्य बुलेटिन की जानकारी देने लगे । भूखे प्यासे अस्पताल के बाहर खडे कैमरामैन । दूसरी ओर पार्टी के दिग्गज नेता अस्पताल नहीं बल्कि दिल्ली दरबार में हाईकमान के यहां सलाम करने दौड़े । पार्टी टिकट पाने की जुगाड़ मेंं, क्योंकि उपचुनाव की संभावना जो दीखने लगी थी ।
मस्तराम जिंदाबाद
वे बेकार थे और सडकों से अधिक दफ्तरों के चक्कर लगाते थे । भूखे थे और घर से पैसे आने बंद थे ।
एक होटल में पहुंचे और आवाज लगाई- मस्तराम को बुलाओ ।
मस्तराम हाजिर हुआ । वहां काउंटर पर सब्जियों से भरे पतीले रखे थे और वे सुबह से भूखे थे । पर ललचाई दृष्टि से देखते तो मस्तराम को शक हो जाता । जरा रौब से बोले - हमें एक समारोह करना है । वो सामने वाला होलीडे होम का हाल बुक करवा लिया है । लगभग दो सौ लोगों कै खाने का इंतजाम ,,मतलब खाने पीने का प्रबंध तुम्हारा ।
-जी साहब । यह तो आपने कल भी फरमाया था ।
- अच्छा । आज खाना चैक करवाओ । ये हमारे बड़े साहब दिल्ली से आए हैं इसी काम की तैयारियां देखने के लिए ।
- नहीं साहब । मैं रोज़ रोज़ मुफ्त खाना चैक नहीं करवा सकता ।
- अरे बेवकूफ । कल ये तुम्हें एडवांस दे जायेंगे । इसीलिए तो दिल्ली से आए हैं ।
- ठीक है साहब लगवाता हूं ।
दोनों ने एक दूसरे की तरफ मुस्कराकर देखा और योजना की सफलता पर आंखों ही आंखों में बधाई दी । डटकर खाना खाया । उठकर चलने से पहले बताया कि कल से थोडा अच्छा है पर उस दिन तुम जानते हो कि बाहर से लोग आयेंगे , काफी अच्छा बनाना ।
मस्तराम जी साहब जी साहब करता गया । वे बाहर चले गये और सडकों पर नारे लगाने लगे -मस्तराम जिंदाबाद ।
अपने आदमी
यह तीसरी बार हो रहा था ।
मैंने तीसरी बार किसी लड़के को नकल करते पकड़ा था औ, बदकिस्मती से वह भी किसी मास्टर, का अपना आदमी निकल आया था । मुझे फिर ठंडी चेतावनी ही मिली थी ।
पहली बार हैड का लड़का ही मेरी पकड़ में आ गया था । जब मैं उसे किसी विजयी भावना में लिए जा रहा था तो पीठ पीछे सभी साथी मुस्कुरा रहे थे । नया होने की वजह से मुझे किसी के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था । और वे जानते बूझते मुस्कुरा रहे थे । हैड ने उसे यह कह कर छोड़ दिया था कि अपना शरारती बेटा है , आपसे मज़ाक कर रहा होगा ।
दूसरी बार मैंने फिर ईमानदारी से ड्यूटी करते हुए एक लड़के को रंगे हाथों नकल करते लपका था । उसकी वजह से मुझे उस प्राइवेट स्कूल के मैनेजर का सामना करना पड़ा था । वह उनका सुपुत्र जो था और मुझे नौकरी करनी थी ।
तीसरी बार खेल प्रशिक्षक भागे चले आए थे और मेरे कंधे पर आत्मीयता का भाव लादते हुए बता गये थे कि वह स्कूल का श्रेष्ठ खिलाड़ी है ।
अब मैंने कातर दृष्टि से अपने आसपास देखना शुरू कर दिया है कि जिससे मुझे मालूम हो जाये कि अपने आदमी कहां नहीं हैं ,,,
तब से मैं एक भी आदमी पर उंगली नहीं रख पाया हूं ,,,
कारोबार
हम दोनों एक ही जगह पहुंचे थे । इसके बावजूद हमारे रास्ते अलग अलग थे । सभागार में हमें साथ साथ बिठाया गया । पर वह मेरे करीब होने पर भी मुझसे आंखें नहीं मिला पा रहा था । हम एक ही गांव के थे लेकिन एक जैसे नहीं थे । मुझे कलम के क्षेत्र में पहचान मिली और उसे कर्म के क्षेत्र में । दोनों को एकसाथ न्यौता मिला । मैं गांव की पगडंडी पर चल कर यहां तक पहुंचा था और वह एक प्रकार से हवा में अपनी चमचमाती गाड़ी में । राजपथ से ।
बताऊं कि उसका पिता हमारी हवेली में रोज़ दूध लेने आता था । वह गांव से दूध इकट्ठा कर शहर में बेचने जाता था । बेटे बड़े बड़े हुए तो हलके के नेता के साथ हो लिए । देखते देखते ईंट भट्ठों का कारोबार शुरू हुआ । गांव का कच्चा मकान आलीशान कोठी में बदल गया । कोठी के आगे चमचमाती कार खड़ी हो गयी । नौकर चाकर घूमने लगे ।
पिता ने दूध का कारोबार नहीं छोड़ा । बेटों को गांव में ताने उलाहने मिलने लगे । बेटों को बाप के दूध बेचने के कारोबार से शर्म आने लगी । समझाने की कोशिश की । बाप यही कहता कि मैं तुम्हारा बाप हूं । मैंने तुम लोगों को इसी कारोबार से पाल पोस कर बड़ा किया । अब शर्म कैसी ?
आखिर बाप बेटों में जमकर जहां सुनी हुई । बाप ने बेटों को सबके सामने कह दिया -मेरा सफेद और शुद्ध कारोबार है । तुम्हारे काले कारोबार से मेरी ईमानदारी की रोटी भली । तुम लोग जो चाहो वो करो । मैं तुम्हें रोकता नहीं । फिर तुम मुझे कैसे रोक सकते हो ? मेरा अपना रास्ता है जीने का ।
बेटे चुपचाप कोठी में लौट गये थे ।
आज वह इसीलिए सभागार में साथ बैठा होने के बावजूद मेरे से आंखें चुरा रहा है ,,,
राजनीति के कान
- मंत्री जी , बड़ा कहर ढाया है ...आपने ।
-किस मामले में भाई?
- अपने इलाके के एक मास्टर की ट्रांस्फर करके ।
-अरे , वह मास्टर ? वह तो विरोधी पार्टी के लिए भागदौड़,,,
-क्या कहते हैं हुजूर ?
- उस पर यही इल्जाम है ।
- ज़रा चल कर कार तक पहुंचने का कष्ट करेंगे?
- क्यों ?
- अपनी आंखों से उस मास्टर को देख लीजिए । जो चल कर आप तक तो पहुंच नहीं पाया । बदकिस्मती से उसकी दोनों टांगें बेकार हैं । और भागदौड़ करना उसके बस की बात कहां ? जो अपने लिए भागदौड़ नहीं कर सकता , वह किसी के विरोध में क्या भागदौड़ करेगा ?
- अच्छा भाई । तुम तो जानते हो कि राजनीति के कान बहुत कच्चे होते हैं और आंखें तो होती ही नहीं । खैर । आपने कहा है तो मैं इस गलती को दुरुस्त करवा दूंगा ।
खिसियाए हुए मंत्री जी ने कहा जरूर लेकिन आंखों में कहीं पछतावा नहीं था ।
-कमलेश भारतीय