जिंदगी में बहुत कुछ .....पर कुछ भी ....यादें आती हैं ....
शीघ्र प्रकाश्य लघुकथा संग्रह-`मैं नहीं जानता' में से
खोया हुआ कुछ
-सुनो ।
-कौन ?
-मैं ।
-मैं कौन ?
- अच्छा । अब मेरी आवाज़ भी नहीं पहचानते ?
- तुम ही तो थे जो काॅलेज तक एक सिक्युरिटी गार्ड की तरह चुपचाप मुझे छोड़ जाते थे । बहाने से मेरे काॅलेज के आसपास मंडराया करते थे । सहेलियां मुझे छेड़ती थीं । मैं कहती कि नहीं जानती ।
- मैं ? ऐसा करता था ?
- और कौन ? बहाने से मेरे छोटे भाई से दोस्ती भी गांठ ली थी और घर तक भी पहुंच गये । मेरी एक झलक पाने के लिए बड़ी देर बातचीत करते रहते थे । फिर चाय की चुस्कियों के बीच मेरी हंसी तुम्हारे कानों में गूंजती थी ।
- अरे ऐसे ?
- हां । बिल्कुल । याद नहीं कुछ तुम्हें ?
- फिर तुम्हारे लिए लड़की की तलाश शुरू हुई और तुम गुमसुम रहने लगे पर उससे पहले मेरी ही शादी हो गयी ।
-एक कहानी कहीं चुपचाप खो गयी ।
- कितने वर्ष बीत गये । कहां से बोल रही हो ?
- तुम्हारी आत्मा से । जब जब तुम बहुत उदास और अकेले महसूस करते हो तब तब मैं तुम्हारे पास होती हूं । बाॅय । खुश रहा करो । जो बीत गयी सो गयी ।
कायर
सहेलियां दुल्हन को सजाने संवारने में मग्न थीं । कोई चिबुक उठा कर देखती तो कोई हथेलियों में रचाई मेंहदी निहारने लगती । कोई आंखों में काजल डालती और कोई
ठोडी उठा कर तारीफ कर गयी और एक कलाकृति को रूप दर्प देकर सभी बाहर निकल गयीं । बारात आ पहुंची थी ।
तभी राजीव आ गया । थका टूटा । विवाह में जितना सहयोग उसका था , उतना सगे भाइयों का भी नहीं । वह उसके सामने बैठ गया । चुप । मानों शब्द अपने अर्थ खो चुके हों और भाषा निरर्थक लगने लगी हो ।
- अब तो जा रही हो , आनंदी ?
- हूं ।
-एक बात बताएगी ?
- हूं ।
- लोग तो यह समझते हैं कि हम भाई-बहन हैं ।
- हूं ।
- पर तुम तो जानती हो , अच्छी तरह समझती रही हो कि मैं तुमहें बिल्कुल ऐसी ही ,,,,,,,इसी रूप में पाने की चाह रखता हूं ?
- हूं ।
- पर क्या तुमने कभी, किसी एक क्षण भी मुझे भी उस रूप में देखा है ?
- लाल जोडे में से लाल लाल आंखें घूरने लगीं जैसे मांद में कोई शेरनी तडप उठी हो ।
- चाहा था,,,,,,,पर तुम कायर निकले । मैं चुप रही कि तुम शुरूआत करोगे । तुम्हें भाई कह कर मैंने जानना चाहा कि तुम मुझे किस रूप में चाहते हो पर तुमने भाई बनना ही स्वीकार कर लिया । और आज तक दूसरों को कम खुद को अधिक धोखा देते रहे । सारी दुनिया, मेरे मां बाप तुम्हारी प्रशंसा करते नहीं थकते ,,,,,,,पर मैं थूकती हूं तुम्हारे पौरुष पर ,,,,,जाओ कोई और बहन ढूंढो ।
वह भीगी बिल्ली बना बाहर निकल आया ।
बाद में कमरा काफी देर तक सिसकता रहा
सर्वोत्तम चाय
अजी , चाय तो चाय है । पानी डालो । पत्ती उबालो और पी जाओ । यह विज्ञापन जब जब आता है , तब तब उसे एक प्याली चाय की याद चली आती है । उन दिनों वह दो काम एक साथ कर रहा था-पहला प्राईवेट तौर पर एम ए की तैयारी, दूसरा एक लड़की से प्रेम । उनका प्रेम मुखर नहीं था । कुछ कुछ महसूस करने तक था । रोज शाम वह उसके घर जाता था और एकाध झलक या बातचीत कर लौट आता था ।आखिर परीक्षा की घड़ी आ गई । प्रेम व पढ़ाई-दोनों की , एक साथ । बिना उसे कहे युवा मन ने यह ठान लिया था कि वह चाय पिलायेगी तो परीक्षा देने जाऊंगा ।
क्या प्रेम इसी को कहते हैं ? बिना कहे मन की बात एक से दूसरे तक अपने-आप पहुंच जाये? उस शाम जब वह उस लड़की के घर गया तब उसने चाय का प्रस्ताव रखा । और वह रसोई में चाय बनाने चली गई । चाय बनाने में अनुमान से अधिक समय लगा । उसने चाय की प्याली थमाते कहा -स्टोव में तेल खत्म हो गया था ।घर में ईंधन था नहीं । यकीन करो मैंने रद्दी अखबार इकट्ठे कर यह चाय बनाई है , बडी मुश्किल से ।इसमें शायद धुआं व राख भी शामिल हैं , पर मैं जानती थी कि यदि तुम्हें चाय नहीं पिलाई तो तुम परीक्षा देने नहीं जाओगे ।
युवक ने कहा , बस, बस,,, यह मेरे जीवन की सर्वोत्तम चाय है और वह गट गट चाय की पूरी प्याली पी गया ।
सच , चाय , सिर्फ, चाय नहीं होती ।
बहुत दिनों बाद
बहुत दिनों बाद अपने छोटे से शहर गया था । छोटे भाई के परिवार में खुशी का आयोजन था । बीते सालों में यह पहला ऐसा मौका था जब मैं वहां पूरी फुर्सत में रूका था । मैं अपने शहर घूमने निकला या शायद बरसों पुरानी अपनी पहचान ढूंढने निकल पडा । अपना चेहरा खोजने निकल पडा ।
पांव उसी छोटी सी गली की ओर चल पड़े जहां रोज शाम जाया करता था । वही जिसे पा सकता नहीं था लेकिन देख आता था । कुछ हंसी , कुछ मजाक और कुछ पल । क्या वह आज भी वहीं ,,,? कितना भोलापन ? कैसे वह वहां हो सकती है ? घर तक पहुंच गया । मेरे सपनों का घर । उजडा सा मोहल्ला । वीरान सा सब कुछ । खंडहर मकान । उखडी ईंटें ।
क्या बरसों बाद प्यार का यही असली रूप हो जाता है ? क्या प्रेमिका का चेहरा किसी खंडहर में खोजना पडता है ? क्या प्रेम बरसों में कहीं खो जाता है ?
नहीं । खंडहरों के बीच बारिशों के चलते कोई अंकुर फूट रहा था । शायद प्रेम यही है जो फूटता और खिलता ही रहता है ,,,खंडहरों के बीच भी ,,,मैं कभी यहां से कहीं गया ही नहीं ,,,सदा यहीं था ,,,तुम्हारे पास ,,,
मैं नहीं जानता
बस में कदम रखते ही एक चेहरे पर नज़र टिकी तो बस टिकी ही रह गयी । यह चेहरा तो एकदम जाना पहचाना है । कौन हो सकता है ? सीट पर सामान टिकाते टिकाते मैं स्मृति की पगडंडियों पर निकल चुका था ।
अरे, याद आया । यह तो हरि है । बचपन का नायक । स्कूल में शरारती छात्र । गीत संगीत में आगे । सुबह प्रार्थना के समय बैंड मास्टर के साथ ड्रम बजाता था । परेड के वक्त बिगुल । हर समारोह में उसके गाये गीत स्कूल में गूंजते । हर छात्र हरि जैसा हो ,,,अध्यापक उपदेश देते न थकते ।
घर की ढहती आर्थिक हालत उसे किसी प्राइवेट स्कूल का अध्यापक बनने पर मजबूर कल गयीं । अपनी अदाओं से वह एक सहयोगी अध्यापिका को भा गया । पर ,,, समाज दोनों के बीच दीवार बन कर खड़ा हो गया । जाति बंधन पांव की जंजीर बनते जा रहे थे । ऐसे में हरि और उस अध्यापिका के भाग जाने की खबर नगर की हर दीवार पर चिपक गयी थी । कुछ दिनों तक तलाश जारी रही थी , कुछ दिनों तक अफवाहों का बाज़ार गर्म रहा था । फिर मेरा छोटा सा शहर सो गया था । हरि और वह लड़की कहां गये , क्या हुआ शहर इस सबसे पूरी तरह बेखबर था । हां , लड़की के पिता ने समाज के सामने क्या मुंह लेकर जाऊं , इस शर्म के मारे आत्महत्या कर ली थी ।
मैंने बार बार चेहरे को देखा , बिल्कुल वही था । हरि और सिथ बैठी वह महिला ? हो न हो वही होगी । अनदेखी प्रेमिका ।
चाय पान के लिए बस रुकी तो मैं उतरते ही उस आदमी की तरफ लपका ।
- आपका नाम हरि है न ?
- हरि ? कौन हरि ? मैं नहीं जानता किसी हरि को ।
- झूठ न कहिए । आप हरि ही हैं ।
- अच्छा ? आपका हरि कैसा था ? कहां था ?
- हम एक ही स्कूल में पढ़ते थे । याद कीजिए वह शरारतें, वह बैंड बजाना ,,,गीत गाना,,
-नहीं नहीं । मैं किसी हरि को नहीं जानता ।
हम बस के पास ही खड़े थे । खिड़की के पास बैठी हुई वह महिला हमारी बातचीत सुनने का प्रयास कर रही थी । उसने वहीं से पुकार लिया -हरि क्या बात है ? क्या पूछ रहे हैं ये ?
अब न शक की गुंजाइश थी और न किसी और सवाल पूछने की जरूरत रह गयी थी ।
मैं चलने लगा तो उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा -भाई बुरा मत मानना । मैं नहीं चाहता था कि बरसों पहले जिस कथा पर धूल जम चुकी हो उसे झाड़ पोंछ कर फिर से पढ़ा जाये । मैं तुम्हारा नायक ही बना रहना चाहता था पर वक्त ने मुझे खलनायक बना दिया । खैर , जिस हरि को तुम जानते थे वह हरि मैं अब कहां हूं ? उसकी आंखों में नमी उतर आई । शायद खोये हुए हरि को याद करके ,,,
ऐसे थे तुम
बरसों बीत गये इस बात को । जैसे कभी सपना आया हो । अब ऐसा लगता था । बरसों पहले काॅलेज में दूर पहाड़ों से एक लड़की पढ़ने आई थी । उससे हुआ परिचय धीरे धीरे उस बिंदु पर पहुंच गया जिसे सभी प्रेम कहते हैं ।
फिर वही होने लगा । लड़की काॅलेज न आती तो लड़का उदास हो जाता और लड़का न आता तो लड़की के लिए काॅलेज में कुछ न होता । दोनों इकट्ठे होते तो जैसे कहीं संगीत गूंजने लगता , पक्षी चहचहाने लगते ।
फिर वही हुआ जो अक्सर प्रेम कथाओं का अंत होता है । पढ़ाई के दौरान लड़की की सगाई कर दी गयी । साल बीतते न बीतते लड़की अपनी शादी का काॅर्ड देकर उसमें आने का न्यौता देकर विदा हो गयी ।
लड़का शादी में गया । पहाड़ी झरने के किनारे बैठ कर खूब खूब रोया पर ,,,झरने की तरह समय बहने लगा ,,,बहता रहा । इस तरह बरसों बीत गये ,,इस बीच लड़के ने आम लड़कों की तरह नौकरी ढूंढी , शादी की और उसके जीवन में बच्चे भी आए । कभी कभी उसे वह प्रेम कथा याद आती । आंखें नम होतीं पर वह गृहस्थी में रम जाता और कुछ भूलने की कोशिश करता ।
आज पहाड़ में घूमने का अवसर आया । बस में कदम रखते ही उसे याद आया कि बरसों पहले की प्रेम वाली नायिका का शहर भी आयेगा । उत्सुक हुआ वह कि वह शहर आने पर उसे कैसा कैसा लगेगा ? आकुल व्याकुल था पर,,,कब उसका शहर निकल गया,,, बिना हलचल किए , बिना किसी विशेष याद के ,,,क्योंकि वह सीट से पीठ टिकाये चुपचाप सो गया था ,,,जब तक जागा तब तक उसका शहर बहुत पीछे छूट चुका था ।
वह मुस्कुराया । मन ही मन कहा कि सत्रह बरस पहले एक युवक आया था , अब एक गृहस्थी । जिसकी पीठ पर पत्नी और गुलाब से बच्चे महक रहे थे । उसे किसी की फिजूल सी यादों और भावुक से परिचय से क्या लेना देना था ?
इस तरह बहुत पीछे छूटते रहते हैं शहर, प्यारे प्यारे लोग , ,उनकी मीठी मीठी बातें,,,,आती रहती हैं ,,,धुंधली धुंधली सी यादें और अंत में एक जोरदार हंसी -अच्छा । ऐसे थे तुम । अच्छा ऐसे भी हुआ था तुम्हारे जीवन में कभी ?
आज का रांझा
उन दोनों ने एक दूसरे को देख लिया था और मुस्कुरा दिए थे । करीब आते ही लड़की ने इशारा किया था और क्वार्टरों की ओर बढ़ चली । लड़का पीछे पीछे चलने लगा ।
लड़के ने कहा -तुम्हारी आंखें झील सी गहरी हैं ।
-हूं ।
लड़की ने तेज तेज कदम रखते इतना ही कहा ।
-तुम्हारे बाल काले बादल हैं ।
-हूं ।
लड़की तेज़ चलती गयी ।
बाद में लड़का उसकी गर्दन , उंगलियों, गोलाइयों और कसाव की उपमाएं देता रहा । लड़की ने हूं भी नहीं की ।
क्वार्टर खोलते ही लड़की ने पूछा -तुम्हारे लिए चाय बनाऊं ?
चाय कह देना ही उसकी कमजोर नस पर हाथ रख देने के समान है , दूसरा वह बनाये । लड़के ने हां कह दी । लड़की चाय चली गयी औ, लड़का सपने बुनने लगा । दोनों नौकरी करते हैं । एक दूसरे को चाहते हैं । बस । ज़िंदगी कटेगी ।
पर्दा हटा और ,,,,
लड़का सोफे में धंस गया । उसे लगा जैसे लड़की के हाथ में चाय का प्याला न होकर कोई रायफल हो , जिसकी नली उसकी तरफ हो । जो अभी गोली उगल देगी ।
-चाय नहीं लोगे ?
लड़का चुप बैठा रहा ।
लड़की से, बोली -मेरा चेहरा देखते हो ? स्टोव के ऊपर अचानक आने से झुलस गया । तुम्हें चाय तो पिलानी ही थी । सो दर्द पिये चुपचाप बना लाई ।
लड़के ने कुछ नहीं कहा । उठा और दरवाजे तक पहुंच गया ।
-चाय नहीं लोगे ?
लड़की ने पूछा ।
-फिर कब आओगे?
- अब नहीं आऊंगा ।
-क्यों ? मैं सुंदर नहीं रही ?
और वह खिलखिला कर हंस दी ।
लड़के ने पलट कर देखा,,,
लड़की के हाथ में एक सड़ा हुआ चेहरा था और वह पहले की तरह सुंदर थी ।
लड़का मुस्कुरा कर करीब आने लगा तो उसने सड़ा हुआ चेहरा उसके मुंह पर फेंकते कहा -मुझे मुंह मत दिखाओ ।
लड़के में हिम्मत नहीं थी कि उसकी अवज्ञा करता ।
-कमलेश भारतीय