विष्णु प्रभाकर की जयंती पर कुछ यादें
-*कमलेश भारतीय
मित्र अरूण कहरवां ने आग्रह किया कि विष्णु प्रभाकर जी को स्मरण करूं कुछ इस तरह कि बात बन जाये। मैं फरवरी , 1975 में अहमदाबाद गुजरात की यूनिवर्सिटी में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा अहिंन्दी भाषी लेखकों के लिए लगाये गये लेखन शिविर के लिए चुना गया था। दिल्ली में नरेंद्र कोहली जी मुझे रेलगाड़ी में विदा करने आए थे। पहली बार एक छोटे से कस्बे के युवा ने इतनी लम्बी रेल यात्रा की थी। बिना बुकिंग। एक कनस्तर पर बैठ कर। यूनिवर्सिटी पहुंचा। दूसरे दिन क्लासिज शुरू हुईं। मैंने कथा लेखन चुना। हमारे कथा गुरु के रूप में विष्णु प्रभाकर जी आमंत्रित थे। मज़ेदार बात कि आज की प्रसिद्ध कथाकार राजी सेठ व उनकी बहन कमलेश सिंह भी हमारे साथ प्रतिभागी थीं। कुल बतीस लेखक विभिन्न हिंदी भाषी प्रांतों से चुन कर आए थे। विष्णु प्रभाकर जी की सबसे चर्चित व लोकप्रिय पुस्तक आवारा मसीहा तब प्रकाशित हुई थी और वे उसकी प्रति झोले में रखते थे बड़े चाव से दिखाते। उनका शरतचंद्र का कहा वाक्य नहीं भूलता कि लिखने से बहुत मुश्किल है न लिखना। यानी जब कोई रचना आपके मन पर सवार हो जाती है तो आप उसे लिखे बिना नहीं रह सकते। फिर उनकी सुनाई लघुकथा:
चांदनी रात थी। नदी किनारे मेंढकों के राजा ने कहा कि कितनी प्यारी चांदनी खिली है। आओ चुपचाप रह कर इसका आनंद लें और सभी मेंढक यही बात सारी रात टर्राते रहे।
देखिए कितना बड़ा व्य॔ग्य। एक सप्ताह ऐसे ही कथा लेखन की बारीकियां सीखीं। शब्द चयन के बारे में वे कहते थे कि भागो नहीं, दौड़ो। इसका गूढ़ अर्थ यह कि भागते हम डर से हैं जबकि दौड़ते हम विजय के लिए हैं।
वे उन दिनों साप्ताहिक हिंदुस्तान के लिए कहानी का संपादन यानी चयन करते थे। मेरी कहानी थी -एक ही हमाम में। यह कहानी कार्यशाला में पढ़ी। उन्होंने शाम की सैर पर मुझे कहा कि कुछ तब्दीलियां कर लो तो इसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में दे दूं। मैंने राजी सेठ से यह बात शेयर की। उन्होंने कहा कि इसलिए तब्दील मत करो कि यह साप्ताहिक हिंदुस्तान में आयेगी। यदि जरूरी हो तो चेंज करना। मैंने लालच छोड़ा और वह कहानी रमेश बतरा ने साहित्य निर्झर के कथा विशेषांक मे प्रकाशित की और उतनी ही चर्चित रही। यानी चेंज लेखक सोच समझ कर करे।
इसके बाद मैंने लगातार विष्णु जी से सम्पर्क बनाये रखा। वे हर पत्र का जवाब देते। अनेक पत्र घर में पुरानी फाइलों में मिलते रहे। बहुत समय बाद पता चला ये पत्र वे बोल कर मृदुला श्रीवास्तव और बाद में वीणा को लिखवाते थे। नीचे हस्ताक्षर करते थे। फिर वे लुधियाना आए। तब भी मुलाकात हुई। जालंधर आए तब भी दो दिन मुलाकातें हुईं। फिर मैं दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक लगा तो उनकी इंटरव्यू प्रकाशित की -मैं खिलौनों से नहीं किताबों से खेलता था। इसके बाद मेरी ट्रांस्फर हिसार के रिपोर्टर के तौर पर हुई। यहां आकर विष्णु जी का हिसार कनैक्शन पता चला कि वे रेलवे स्टेशन के पास अपने मामा के पास ही पढ़े लिखे और उन्होंने ही उनकी पशुधन फाॅर्म में नौकरी लगवाई। वहीं लेखन में उतरे और नाटक मंचन में अभिनय भी करते रहे। बीस वर्ष यहीं गुजारे। शायद सारा जीवन हिसार में गुजारते लेकिन सीआईडी के इंस्पेक्टर ने कहा कि काका जी, क्रांति की अलख पंजाब के बाहर जगाओ। तब हिसार पंजाब का ही भाग था। इस तरह वे परिवार सहित दिल्ली कश्मीरी गेट बस गये और यह उनके लेखन के लिए वरदान साबित हुआ। संभवतः हिसार में रह कर वे इतनी ऊंची उड़ान न भर पाते। कहानी ही नहीं , नाटक और लघुकथा तक में उनका योगदान है। बहुचर्चित जीवनी आवारा मसीहा पर उन्हें जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला जिसे उन्होंने मकान बनाने में लगाया और उसी मकान पर कब्जा हुआ और वे प्रधानमंत्री तक गये और आखिरकार मकान मिला। वे इतने स्वाभिमानी थे कि प्रधानमंत्री के एक समारोह में जब उनके बेटे को साथ नहीं जाने दिया तब वे वापस आ गये। पता चलने पर प्रधानमंत्री ने चाय पर बुलाया। वे गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी होते हुए भी किसी प्रकार की पेंशन लेने को तैयार न हुए।
आखिर दैनिक ट्रिब्यून की ओर से कथा कहानी प्रतियोगिता के पुरस्कार बांटने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया क्योंकि वे हिसार के हीरो थे। उन्हें पांवों में सूजन के कारण कार में ही दिल्ली से लाने की व्यवस्था करवाई और वे यहां चार दिन रहे। प्रतिदिन मैं उन्हें मामा जी के घर से लेकर आयोजनों में ले जाता। वे गुजवि के भव्य वीआईपी गेस्ट हाउस में नहीं रुके। उनका कहना था कि मुझे यह आदत नहीं और मैं अपने मामा के घर ही रहूंगा। यह सारी व्यवस्था संपादक विजय सहगल के सहयोग से करवाई। जब समारोह के बाद उन्हें सम्मान राशि दी तब वे आंखों में आंसू भर कर बोले -कमलेश । तेरे जैसा शिष्य भी मुश्किल से मिलता है।
बाद में उन्हें सपरिवार दिल्ली छोड़ने गया। मेरा दोहिता आर्यन मात्र एक डेढ़ वर्ष का था। उसे गोदी में खूब खिलाया। वह फोटो भी है मेरे पास। लगातार लेखन में जुटे रहे और आज भी उनके बेटे अतुल प्रभाकर के साथ सम्पर्क बराबर हैं। उन्होंने दो वर्ष पूर्व दिल्ली के समारोह में बुलाया और मुझसे कहानी पाठ के साथ विष्णु जी के संस्मरण सुनाने को कहा । इसी प्रकार रोहतक के एमडीयू के हिंदी विभाग के विष्णु स्मृति समारोह में मुझे विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। बहुत कुछ है पर तुरंत जो ध्यान में आया लिख दिया। हिसार की चटर्जी लाइब्रेरी को उन्होंने 2100 पुस्तकें अर्पित कीं। लाइब्रेरी में उनकी फोटो भी लगाई गयी है। हिसार के आमंत्रण पर उनका कहना था कि जब भी बुलाओगे तब नंगे पांव दौड़ा आऊंगा। आज बहुत याद आ रहे हैं विष्णु जी। हरियाणा सरकार ने जिला पुस्तकालय को विष्णु प्रभाकर जी के नाम से जोड़ा तब भी राज्यपाल आए और विष्णु जी का पूरा परिवार भी आया। बहुत सी छोटी छोटी यादें उमड़ रही हैं। वे हमारे दिल में सदैव रहेंगे। मेरी चर्चित पुस्तक यादों की धरोहर में सबसे पहले इंटरव्यू विष्णु प्रभाकर जी का ही है जो उसी कथा कहानी प्रतियोगिता के समारोह के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून में विशेष रूप से प्रकाशित किया गया था। यह इंटरव्यू विशेष रूप से दिल्ली जाकर किया था और वे उस शाम बाहर खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने इंटरव्यू के बाद अपना उपन्यास अर्द्धनारीश्वर मुझे भेंट किया था। एक ऐसा उपहार जिसे मैं भूल नहीं सकता। इस पुस्तक के दो संस्करण पाठकों के हाथों में बहुत कम समय में पहुंचे।
--*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी।