लघुकथा /स्टिकर
-कमलेश भारतीय
एक पार्टी के लोग मुझसे चंदा मांगने आए । उनके भले चेहरों को देखकर मैं इंकार न कर सका । चलते चलते वे अपनी पार्टी का स्टिकर भी ड्राइंगरूम में लगा गये । मैं विचारों से सहमत न होते हुए भी लोकलज्जावश चुप रह गया ।
अब जो भी आता , पहले मुझको , फिर स्टिकर को घूरने लगता । घुमा फिरा कर पूछ ही लेता कि क्या मैं फलाने पार्टी का सदस्य हूं । मैं इंकार में सिर हिला देता । अगला सवाल फिर होता , यदि सदस्य नहीं तो क्या इस पार्टी के हमदर्द हो ? मैं मासूम सा इंकार फिर कर देता । फिर तो जैसे तोप का मुंह मेरी ओर हो जाता ।
मोटी सी बात कही जाती- जब सदस्य नहीं , हमदर्द नहीं , तो फिर चंदा किसलिए ?
अब मेरा माथा ठनका । यह मामूली सा स्टिकर मेरी जान का जंजाल बन गया । बात ठीक भी लगने लगी । यदि किसी पार्टी का स्टिकर मेरे ड्राइंगरूम में लगेगा तो मेरे ही विचारों का प्रतिरूप माना जायेगा । मैं मामूली से स्टिकर को अपना मुखौटा क्यों बनने दूं ? किसी की विचारधारा को मैं क्यों ढोता फिरूं ?
एक फैसले के तहत मैने चाकू लेकर स्टिकर को काट दिया और मुक्ति की सांस ली।