लघुकथा/स्त्री/कमलेश भारतीय
कमलेश भारतीय जाने-माने पत्रकार व लेखक हैं
वह जार जार रोये जा रही थी और फोन पर ही अपने पति से झगड रही थी। बार बार एक ही बात पर अडी हुई थी कि आज मैं घर नहीं आऊंगी। बहुत हो गया। संभालो अपने बच्चे। मुझे कुछ नहीं चाहिए।
पति दूसरी तरफ से मनाने की कोशिश में लगा था और वह आंसुओं में डूबी कह रही थो कि आखिर मैं कलाकार हूं तो बुराई कहां है? क्या मैं घर का काम नहीं करती? क्या मैं आदर्श बहू नहीं? यदि कला का दामन छोड दूं और मन मार कर रोटियां थापती और बच्चे पालती रहूं तभी आप बाप बेटा खुश होंगे? नहीं। मुझे अपनी खुशी भी चाहिए। मेरो कला मर रही है। आज मेरा इंतजार मत करना। मैं नौकरी के बाद सीधे मायके जाऊंगी। मेरे पीछे मत आना।
इसी तरह लगातार रोते बिसूरती वह ऑफिस का टाइम खत्म होते ही सचमुच अपने मायके चली गयी।
मां बाप ने हैरानी जताई। अजीब सी नजरों से देखा। कैसे आई? कोई जरूरी काम आ पडा? कोई स्वागत् नहीं। कहीं बेटी के घर आने की कोई खुशी नहीं। चिंता, बस चिंता। क्या करेगो यहां बैठ कर? मुहल्लेवाले क्या कहेंगे? हम कैसे मुंह दिखायेंगे?
शाम को पति मनाने और लिवाने आ गया। कहां है मेरा घर? यह सोचती अपने रोते बच्चों के लिए घर लौट गयी। पर कौन सा घर? किसका घर? कहां खो गयी कला? किसी घर में नहीं?