कहानी/सूनी मांग का गीत/कमलेश भारतीय
लेखक कमलेश भारतीय जाने-माने कवी, लेखक व पत्रकार हैं
अम्मा आज और दिनों की तरह बीड़ी का कश खींचती दरवज्जे पर मौजूद नहीं थी । चलो , जान छूटी और चाहना भी कैसी ? बिल्ली के भागों छींका टूटा । होती तो उसे देखते ही शुरू हो जाती -ओ री रांड, कोई यार गार मिल गया था राह में , जो इत्ती देर लगा के आ रही है ?
वह भी बिना ठिकाना देखे , सोचे समझे सिर पर धरी, घास की गांठ झट से बीच आंगन में पटक कर , कमर पर दोनों हाथ टिका कर पूछ लेती -क्यों आज तेरा यार नहीं आया कोई, जो मेरे यारों का अता पता पूछने बैठ गयी ? इस तरह एक बार जो तानों का सिलसिला शुरू होता वह गयी रात तक चलता रहता । कभी अम्मा पुराना किस्सा छेड़ बैठती -अरी महारानी , मेरे तो बाल सफेद हुए । अब चढ़ती उम्र तो तेरी है । मेरी फिक्र छोड़ कर अपनी देह की फिक्र कर । बीते साल सारे गांव वालों को गन्ने के खेत में कबड्डी मैच मैंने नहीं तूने दिखाया था । जब तेरे से सांस भी नहीं लिया जा रहा था , कपड़े लत्ते भी संभाले नहीं जा रहे थे ।
तब वह भी नहले से दहला बनी ठोक के कहती -मेरे चरित की छोड़ बुढ़िया । मेरी तो खाने पीने की उम्र है । इस उम्र में मैं मैच नहीं खेलूंगी तो क्या बुढ़ापे में स्वाह खाऊंगी ? अपनी चरित की बता जिसकी दर्शन के साथ चलती भट्टी रोज़ ही पकड़ी जाती है । तेरे को कोई शर्म हया हो तो डूब मरे किसी ताल तलैया में जाकर । पर हो तब न ,,,
यों बीच में सारे काम निपटाती जाती पर तानों का सिलसिला भी साथ साथ चलता रहता । शुक्र है कि आज अम्मा नहीं है । घड़ी भर दम तो ले पायेगी । घास की गांठ सिर से उतार कर टिका दी । दीवार से लगी चारपाई घसीट कर धम्म् से उस पर जा गिरी । एक जान को ढेर सारे काम निपटाने होते हैं । मुश्किल से कभी कभार अम्मा इधर उधर होती है । तब पीठ सीधी करने का मौका हाथ आता है । वैसे करने धरने को कुछ कम नहीं । पशुओं को चारा डालना , दिन भर के बर्तन मांजना , रात का खाना पकाना,,,और जो भी काम उसके सामने आए करते जाना । पर वह मचल मारे लेटी रही । कौन यहां धुआंधार गालियां देने वाली अम्मा बैठी थी । उसे याद आ गया है कि अम्मा और सेमां ब्याह कमाने गये हैं । गीत की आवाज़ सुन कर ही इस बात का ख्याल आया है । रिकाॅर्ड के बोल गांव भर में फैल रहे हैं और हवा को नशीली बनाये जा रहे हैं ।
उसे पता भी नहीं चला कि कब वह भैंस के आगे घास डाल कर दोबारा चारपाई पर आ गिरी । थकान से चूर होने से ऐसा लगा मानो वह सपने में घास डाल रही थी । पर नहीं । ज़रा सी आंखें उघाड़ कर देखा कि गांठ खुली है और भैंस घास चर रही है । वह हैरान रह गयी ।
उसे हैरानी इसलिए भी नहीं हुई कि उसके देखते देखते घर आंगन में अंधेरा बिन बुलाये मेहमान की तरह बेशर्मी से घुसता चला गया । जब तक उसे घर में फैले अंधेरे का ख्याल आया तब तक वह और भी निर्जीव हो गयी । वह उस अंधेरे के सामने निपट अकेली पड़ गयी । उठ कर दीया जलाने की हिम्मत भी नहीं हुई । मुश्किल से शादी ब्याह के दिनों में थोड़ा आराम मिल पाता है , उस सुख को भी यों ही क्यों जाने दे ? उसने टांगें पसार लीं जैसे आराम करने का पक्का इरादा बन लिया हो ।
सामने फैले अंधेरे में याद के जुगनू टिमटिमाने लगते हैं ,,,ऐसे ही,,,जैसे कोई नशे में खो जाता है । अपने आप से थोड़े समय के लिए कट जाता है । वह भी खो गयी पिछले दिनों में । अंधेरे में टिमटिमाते जुगनू -जो क्षण बर दिपदिपाते हैं और फिर वही घुप्प अंधेरा छाया रह जाता है । फिर थोड़ा चमक पाते हैं , फिर रात की स्याही उनकी चमक पर पुत जाती है । आखिर में अंधेरा ही रह जाता है । उसके बीते हुए दिनों में खुशी के पल छिन थोड़े हैं और गर्दिश के दिनों रातों का अम्बार लगा है ।
खुमारी कैसी भी हो , उसमें आदमी अकेला रह जाता है । अपनेआप में डूब डूब जाता है । वह भी डूबती गयी ,सीढ़ी दर सीढ़ी अतीत के ताल में । ऊपर की सतह हटा कर नीचे जा पहुंची । निर्मल जल की तरह ,,,सब साफ-साफ उसकी आंखों के आगे तैरने लगा ।
इसी आंगन में बापू लेटता था । एक दिन ऐसा सोया कि दोबारा आंखें नहीं खोलीं तो हज़ार बार हिलाने बुलाने, झिंझोड़ने पर भी नहीं खोलीं । मुर्दा शरीर क्या जवाब देता ? जैसे हम सबसे बापू रूठ गया हो । लाख मनाया पर वह नहीं माना । इतनी बेरुखी से मुंह फेर कर चल देगा इसकी उम्मीद नहीं थी । पर वह ऐसा गया कि फिर नहीं लौटा ।
रह गये पीछे -मैं , सेमां और अम्मा । तब शायद पहली बार घुस आया यह अंधेरा घर भर में । यह घना अंधेरा ,,,जिसे मार भगाने की हिम्मत न अम्मा में थी और न ही शायद सेमां में । न ही मुझमें थी । हम सब अंधेरे में सिसकियां भर रहे थे और एक दूसरे को पकड़ कर , गले लगा कर देने को दिलासा दे रहे थे पर रुलाई और ज्यादा फूटती चली जा रही थी ।
दूसरी सुबह हमारे आगे पूरा दिन था बल्कि कुछ भी नहीं था । जो करता था बापू करता था । अब कौन लाए ? क्या किया जाए ? कैसे जिया जाए ?
कोई खेत खलिहान तो बापू छोड़ नहीं गया था हमारे लिए । यही कच्चा घर था जिसकी मिट्टी रोज़ थोड़ी और भुर जाती थी । यही आंगन जिसमें अंधेरा थोड़ा और पसर जाता था । यही हम थे जिनकी भूख थोड़ी और बढ़ जाती थी । बापू के रहते हमें कभी दिन के छोटे बड़े होने का , रात के बेरहम होने का ख्याल तक नहीं आया था । मंगल के दिन छोड़ बापू बाकी दिन हजामत बनाने के सामान से भरी अपनी संदूकची उठाये पूरे गांव में महाराज , जजमान की हांक लगाता एक एक घर हो आता । शाम लौटते समय वह सिर पर एक गठरी लादे आता जिसमें बहुत सी छोटी छोटी पोटलियां छिपी होतीं । मैं और सेमां घर की कच्ची मुंडेर पर पहले से ही उसकी राह ताक रहे होते । चीखते चिल्लाते , झूमते गाते उसे घर में आने से पहले ही घेर डालते । एक एक कर सारा सामान खोल देते और कुछ बढ़िया खाने को मिलता तो उस पर चीलों की तरह झपट पड़ते । अम्मा इसे हमारा खेल तमाशा मानती और ज़ोर आजमाइश करने देती । तब इतना बुरा वक्त नहीं था । हर कोई बापू को खुशी से जी खोल कर देता था । बापू भी अपने काम में माहिर था । और जैसे इस पेशे वाले को हाज़िर जवाब होना चाहिए वैसे ही हाजिरजवाब भी था ।
पेट था कि दिन रात रोटी मांगे जा रहा था और हमारे पास उसका कोई जवाब नहीं था । था तो सिर्फ कच्चा घर जिसकी छत रोज़ टपकती थी । लोहे की जंग खाई संदूकची जिसका इस्तेमाल कैसे करना है , यह सेमे की समझ में नहीं आता था । और बेसहारा हम -बाकी अंधेरा । दिन प्रतिदिन और गहरा होता जाता था ।
अम्मा ने शुरूआत की । आसपास के अमीर, खाते पीते घरों में बर्तन मलने धोने लगी , अपनी सूनी मांग को भुला कर दूसरों की मांग में सिंदूर भरने के सुहाग गीत गाने लगी । अकेली जान को डर लगा रहता था,,,गांव के लोग उजड्ड गंवार ,,,क्या जाने कब क्या कर बैठें ,,ज़रा सी बात निकली तो विधवा का तो मरन हो जायेगा न । मरद का क्या है ? नहाया हुआ घोड़ा है । किसी की इज्जत आबरू का उसे क्या ? इतना सब सोच कर सेमे को साथ साथ रखने लगी । सेमां बैठे बैठे तंग आ जाता तब बर्तन मांजने में हाथ बंटाने लगता ।
एक सिलसिला बन गया ,,,जीने का । पर ब्याह शादी रोज़ रोज़ थोड़े होते हैं । पांधे इस तरीके से तारीखें निकालते हैं कि उनका कोई भाई बंद ब्याह से खाली न रह जाए । अम्मा कितने ब्याह एक साथ कमा सकती है ? ज्यादा से ज्यादा दो । सगुनों के वक्त मौजूद न रही तो इस भुक्खे जमाने में कौन बाद में रुपये हथेली पर धरता है ? रिवाज तो सब जाते रहे । अब तो सरकार की तरह बस दिखावा ही दिखावा है । रात को वही उल्लू बोलते हैं,,,अम्मा ही रंडी रोने रोती है , सो उसे याद आया ।
आखिर सेमे ने संदूकची का ढक्कन खोल डाला ,,,शर्म उतार फेंकी । जरूरत भर की काम चलाऊ चीज़ें शहर से लेता आया । मिट्टी व रेत से रगड रगड कर अम्मा और सेमे ने संदूकची का जंग झाड़ दिया । लिश्का चमका दी और देखते देखते विरासत में पाई जी हजूरी के साथ घर घर डोलने लगा ,,,बापू की तरह । उधर से अम्मा का मन भी डील गया । ब्रत टूट गया उसका । जो अम्मा बापू के बाद मरद के साये से भी दूर भागती थी -वही अम्मा दिल से धोखा खा गयी । जब उसे दिल मजबूत करके चलना था ऐसे समय में उसका दिल पिघल गया ,,,मोम जैसा हो गया । गांव का ही एक अधेड़ कुंवारा दर्शन हमारा हमदर्द बन कर आया और सिरदर्द बन कर रह गया ,,,जात पात की वजह से , मूंछें फूटे हुए छोरे सेमे और जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी छोरी की वजह से ब्याह तो न हो सका पर ऊपर ऊपर से रिश्ता जोड़ कर हमारा मामा कहलाने लगा । सारे गांव में कांव कांव होने लगी । कमजात ने वही किया । जिस बात का डर था । असली रंडी बन बैठी ।।इस तरह हर गली , हर जुबान पर एक ही कथा चल पड़ी ।
सेमां धक्क् से रह गया । जवान खून । जगह जगह गाथा सुनते तंग आ गया तब अम्मा से माथा जोड़ बैठा । अम्मा ने आखिर लाज की चादर उतार फेंकी । बीच गली में जाकर ललकारा ,,,जमाने भर को बुरा भला सुनाया,,,जब मैं रोटी से बेजार थी तो बेचारी थी । और अब रोटी खाने लायक हो गयी हूं, हड्डी पसली तोड़, जान मार कर रोटी कमाती हूं तो रंडी लगती हूं ? एक एक को देख लूंगी । जीने का कोई रास्ता भी तो नहीं कि गरीब विधवा के लिए ।
एक बार जो अम्मा का घूंघट उठा तो फिर उठा ही रह गया । उस दिन जो गालियों की बौछार शुरू हुई वो आज तक पूरी नहीं हुई । दाढ़ का दर्द दूर करने के लिए तम्बाकू पीने की सलाह मिली तो बीड़ी पीने की लत लग गयी । उस नशे में हमें भूल सी गयी । हमारे यहां अक्सर बचपन में मंगनी वगैरह हो जाती है -मेरी नहीं हुई । सेमे की आंखों में भी घरवाली के सपने तैरते रहते । लाल डोरे आंखों में उमड़ने लगते । वह निस दिन अम्मा से बखेडा करने लगा । दो दिन रहता ,,,चार दिन कहीं भाग निकलता,,,। इस तरह उसकी कमाई का सहारा भी जाता रहा । क्या हुआ अपनी जरूरतों के वक्त अम्मा के साथ ब्याह शादी कमाने चला जाता है । बस । जो पेशा है वह करे । अम्मा सुबह अंधेरे से खूब जली कटी सुनाती है पर उसके जूं नहीं रेंगती । ज़रा असर नहीं होता । अम्मा उसे सरकारी सांड का खिताब दे चुकी और उसने उस इज्जत को अपना मान लिया है । दो पैसे हाथ आते ही शहर भागता है । सिनेमा देखता है , तरह तरह की रंगीन फोटुएं जेब में डाले घूमता फिरता है ।
वह तो बच गये । दर्शन मामा ने घूम फिर कर दो भैंसें लाकर बांध दीं और दूध बेच बेच कर रोटी पानी चल निकला । नहीं तो सेमे ने हमें भूखे मारने की कोई कसर अपनी तरफ से नहीं छोड़ी थी ।
दर्शन मामा वैसे बुरा नहीं । पता नहीं क्यों इत्ती उम्र निकल जाने पर भी शादी नहीं हुई । मेरे जित्ते बड़े तो बच्चे होते । कमी क्या थी ? पूरा मरद है । देखने भालने में बहुत से ब्याहे लोगों से अच्छा दिखता है । दो जोड़ी हलों से खेती करवाता है । बांसुरी ऐसी बजाता है कि लोग हंसते हैं ,,,कि किशन को किस उम्र में जाकर राधा मिली ।
हंसी मज़ाक की परवाह न अम्मा करती है न दर्शन मामा । एक ही बात की परवाह है कि लोग क्या कहेंगे ? और शायद ऐसे ही यह जन्म निकल जाए । अम्मा बहुत बार अपने आपसे दुखी होकर जब बातें करती है तो यही तसल्ली देती है खुद को -अच्छा । अगले जन्म में पहले पहचान कर , देखभाल कर दर्शन को ही ,,,
अम्मा के पास एक तसल्ली भर तो है । उसके पास क्या है ? कौन सी उमंग है ? वैसा सपना है ? कोई गीत है? उसके सपनों का राजकुंवर कहां है ? क्या वह उस तक आते आते राह में ही थक कर बैठ गया है ? जैसे जैसे बड़ी हो रही है , सपने भी बड़े हो रहे हैं पर निराशा घर जमा रही है । अभी तक सेमां ही कुंवारा है । फिर भी पराया धन है वह । कब तक संभालेगी अम्मा ?
गांव भर का जो कलंक है माथे पर ,,,उसका क्या करे ? कैसे मिटाये ? दर्शन मामा ने तो भैंसें लाकर बांध दीं । अम्मा तो बैठी महारानी सी हुक्म पे हुक्म सुनाये जाती और जगह जगह घास ढूंढ़ती फिरे एक जवान छोरी । यह नहीं देखा कि जवान है , खूबसूरत है कोई हाथ डाल दे तो ? कोई मौका देख के कलाई पकड़ ले तो ? कोई मजबूरी का फायदा उठाने पर उतारू हो जाये तो ?
यही तो हुआ था । जिसे अम्मा अब किस्से की तरह रटे फिरती है और हनुमान चालीसे की तरह रोज़ एक बार पाठ करती है । गरीब को कौन अपने खेत से घास छीलने देता है ? गरीब किस ज़ोर पर रोज़ रोज़ घास छीलने जाये ?
अम्मा को क्या पता ,,,उसे भी क्या पता था कि क्यों मक्खन का छोरा रोज़ प्यार से घास छीलने देता है ? रोज़ चुप रहता है । और आखिर उसे मौका मिल गया । धरती आकाश नहीं मिल पाए । वह खूब भागी । दौड़ी । जब तक सारा गांव इकट्ठा नहीं हो गया तब तक उसके सारे कपड़े उतर चुके थे । क्या चाहा था ? क्या हुआ ? राजकुंवर आये तो किधर से ? हर राह पर जैसे किसी ने यह बात छाप के टांग दी है । हर राजकुंवर या राजकुंवर का दूत उसी को पढ़ कर लौट जाता है ,,,वह प्यासी की प्यासी रह जाती है । मांग सूनी रह जाती है । और हर सावन में एक सखी डोले पर चढ़ कर ससुराल पी के घर चली जाती है ।
-ओ नी महारानी । वाह , क्या टांगें पस्त कर लेट रही है ? जैसे इसका बाप बहुत सारे नौकर चाकर छोड़ कर गया हो इसके धंधे देखने के लिए । चल । उठ महारानी ।
- ओ अम्मा । आ गयी ?
-भले घर में न दीया न बाती । अरी । खसमां नू खानी । झोटा पकड़ के हाथ में पकड़ा दूंगी जो अंधेरे में बैठी ।
-ले खा ले । खाना ले आई हूं । सेमां डेरे पे रहेगा । उसने भी खा पी लिया । रोटी की छुट्टी । हे राम । ज़रा हड्डियों को जोड़ लूं ।
खाना खाते अचानक उसने कहा -अम्मा ।
-क्या है री ?
-सुहाग गीत मुझे भी सुना दे ।
-चुप। खाना खा । दीया बुझा और सो जा । सुहाग के गीत सुनेगी महारानी ।
उसने चुपके से दीपक बुझा दिया । अंधेरे में जुगनू टिमटिमाने लगे ,,,टिमटिमाते रहे ,,,