पाठक के अधिकार ही लेखक का कर्त्तव्य

 पाठक के अधिकार ही लेखक का कर्त्तव्य होता है। लेखक को हमेशा पाठक के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए। पाठक जिन विषयों के बारे में जानना चाहता है यदि लेखक उस पर नहीं लिखेंगे तो उन्हें पाठक भी नहीं मिलेंगे। पाठक का सबसे बड़ा अधिकार यही है कि उसे जो किताब पसन्द ना हो, उसे ना खरीदें। लेकिन पाठकों की अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं होती है। यह बातें शुक्रवार को राजकमल प्रकाशन समूह की विचार-बैठकी की मासिक शृंखला ‘सभा’ में वक्ताओं ने कही। 

पाठक के अधिकार ही लेखक का कर्त्तव्य

नई दिल्ली, 16 दिसंबर 2023:  पाठक के अधिकार ही लेखक का कर्त्तव्य होता है। लेखक को हमेशा पाठक के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए। पाठक जिन विषयों के बारे में जानना चाहता है यदि लेखक उस पर नहीं लिखेंगे तो उन्हें पाठक भी नहीं मिलेंगे। पाठक का सबसे बड़ा अधिकार यही है कि उसे जो किताब पसन्द ना हो, उसे ना खरीदें। लेकिन पाठकों की अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं होती है। यह बातें शुक्रवार को राजकमल प्रकाशन समूह की विचार-बैठकी की मासिक शृंखला ‘सभा’ में वक्ताओं ने कही। 

 

‘सभा’ की चौथी कड़ी में आयोजित परिचर्चा का विषय ‘पाठक के अधिकार’ पर केन्द्रित रहा। इंडिया हैबिटैट सेंटर के गुलमोहर हॉल में आयोजित इस परिचर्चा में लेखक ममता कालिया, सम्पादक रवि सिंह, कार्टूनिस्ट राजेन्द्र धोड़पकर, अनुवादक जितेन्द्र कुमार बतौर वक्ता उपस्थित रहे। वहीं ‘सभा’ का संचालन आलोचक मृत्युंजय ने किया। विषय प्रवेश करते हुए मृत्युंजय ने कहा, “यह ऐसा विषय है जिस पर बहस के अनेक पहलू हैं। पहले पाठकों के पास अपनी बात पहुँचाने या फीडबैक देने के लिए विकल्प नहीं थे। अब सोशल मीडिया के आने से एक खास किस्म का लोकतंत्रीकरण हुआ है। इससे कई तरह के नए पाठक सामने आए हैं। अब किसी बात पर हर कोई खुलकर अपनी बात रख सकता है।

 

इसके बाद उन्होंने सवाल किया कि एक लेखक से उसका पाठक क्या चाहता है और उसे लेखक किस तरह से देखता है?” इस सवाल का जवाब देते हुए ममता कालिया ने कहा, “लेखक और प्रकाशक के संबंधों को लेकर तो अक्सर बात होती है लेकिन यह पहली बार है कि कोई प्रकाशक पाठकों की सुध ले रहा है और उनके अधिकारों की बात कर रहा है।” उन्होंने कहा, “जब हम पाठक के अधिकारों की बात करते हैं तो उसमें लेखक के कर्त्तव्य भी जुड़ जाते हैं। एक लेखक को हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनकी रचनाओं में इतनी पठनीयता होनी चाहिए जो पाठक को बांधे रख सके। पाठक का सबसे बड़ा अधिकार तो यही है कि वह अगर आपके लेखन को पसन्द नहीं करता है तो उसे नकार सकता है। वह आपकी किताब को ऐसे ही रख देगा, उस पर धूल चढ़ने देगा। पाठक को नकार कर कहानी आगे नहीं बढ़ सकती है। इसलिए लेखक जो लिख रहा है वो कम से कम उतना विश्वसनीय होना चाहिए कि पाठक उसको पचा सके। लेखक के पास कहानी कहने का ढंग होना चाहिए और उसे पाठक के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए।”

 

अगले वक्ता जितेन्द्र कुमार ने कहा, “आजकल साहित्यिक रचनाओं की तुलना में समाज विज्ञान की किताबें ज्यादा पढ़ी जाती है। हमारे समाज के बहुजन तबके के पहली पीढ़ी के पाठक ज्ञानवर्धन की चीजें पढ़ना चाहते हैं लेकिन उनके पास ज्यादा भाषाओं का ज्ञान नहीं है। ज्ञान की चीजें केवल अंग्रेजी में उपलब्ध है इसलिए उनकी मांग हिन्दी में ऐसे विषयों पर लेखन की होती है। पाठक जिन विषयों के बारे में जानना चाहता है, यदि आप उस पर नहीं लिखेंगे तो आपको पाठक नहीं मिलेंगे।” 

 

इसके बाद मृत्युंजय के सवालों का जवाब देते हुए रवि सिंह ने कहा, “किताबों की संख्या ज्यादा होना एक अलग बात है और किस तरह की और किन विधाओं की किताबें है यह बिलकुल अलग बात है। आपकी किताबों के विषयों में विविधता का होना बहुत जरूरी है। आजकल बड़ी प्रकाशन कंपनियां छोटे प्रकाशनों का अधिग्रहण कर रही है। इससे प्रकाशक कम हो रहे हैं साथ ही विविधता भी कम हो रही है।” उन्होंने कहा, “पाठक का सबसे बड़ा अधिकार तो यही है कि उन्हें जो किताब पसन्द ना हो उसे ना खरीदें। लेकिन सवाल यह है कि खरीदने के लिए उपलब्ध क्या है? अगर आप ऑनलाइन किताब खरीदने जाते हैं तो आपको पता होना चाहिए कि आपको कौनसी किताब चाहिए। अगर आप यह नहीं जानते हैं तो आपको वही किताबें दिखेगी जो बेस्टसेलर है। ऐसे में पाठकों को उनकी पसन्द की किताबें नहीं मिल पाती है। उनको वही किताबें हर जगह दिखाई देती है जो ज्यादा बिकती है। इससे पाठक का अधिकार छिन गया है।” 

 

राजेन्द्र धोड़पकर ने कहा, “हमारे यहाँ पाठकों की सबसे बड़ी समस्या यही है कि उनको यह जानकारी ही नहीं है कि उनके क्या अधिकार है। पाठकों को यह भी बात नहीं करनी चाहिए कि लेखक को क्या लिखना चाहिए। लेखक को क्या लिखना है यह उसका अधिकार है। क्योंकि लिखते समय भी लेखक कई तरह के दबावों से गुजरता है।” आगे उन्होंने कहा, “अब हिन्दी का एक सांस्कृतिक पाठक जगत बन रहा है। एक भाषा का सांस्कृतिक जगत बनने में बहुत समय लगता है। जब सिनेमा आया तो उर्दू को सबसे ज्यादा जगह इसलिए मिली क्योंकि उसका एक सांस्कृतिक जगत पहले से था।”

 

परिचर्चा के दूसरे चरण में श्रोताओं से संवाद करते हुए ममता कालिया ने कहा कि आजकल आपका ध्यान बांटने के लिए इंटरनेट पर इतनी सारी चीजें मौजूद हैं। ऐसे में लेखक के सामने चुनौती यह है कि उसको इन सबके बीच पाठक को जीतना है। किताब को पाठक तक पहुँचाने में प्रकाशक की भी अहम भूमिका होती है। एक किताब को आकर्षक और बिक्री योग्य बनाना बहुत मुश्किल काम है। किताबें बिकेगी तभी लेखक गुजारा कर पाएगा और अगली किताब लिख पाएगा।