समाचार विश्लेषण/टिकटें बिकाऊ हैं, आइए पहले आओ, पहले पाओ
-*कमलेश भारतीय
पांच राज्यों के चुनाव ऐन सिर पर हैं और दलबदल , आरोप प्रत्यारोप के साथ साथ टिकटें बिकाऊ हैं, का शोर मच रहा है । मज़ेदार बात कि हर पार्टी दूसरी पार्टियों पर टिकटें बेचने के आरोप लगा रही हैं । इसका मतलब एक बात तो साफ है कि टिकटें सचमुच बिकाऊ हैं और जो कीमत नहीं चुका पा रहे वे सही शोर मचा रहे हैं । अति हो रही है । टिकट न मिलने पर बिकने का इल्जाम और आत्महत्या का ड्रामा भी देखने को मिल रहा है ।
सबसे पहले पंजाब में आप पार्टी पर टिकटें बेचने का आरोप लगा । फिर कांग्रेस में भी बात उठने लगी तो अब उत्तर प्रदेश में भाजपा पर आरोप लगने शुरू हो गये हैं ।
क्या राजनीति इतनी नीचे जाती जाती कहीं पाताल में ही न चली जाये । वैसे पाताल देखा तो नहीं लेकिन लगता है कि पाताल कहीं न कहीं तो है । नहीं तो कल्पना कीजिए पाताल कैसा होगा ? राजनीति में विचारशून्यता पैदा होती जा रही है और पैसे का चलन बढ़ता जा रहा है । पहले पैसे से टिकट खरीदो , फिर महंगा चुनाव लड़ो और फिर मंत्री बनने के लिए दलबदल कर लो । यही चलन है और यही आज की राजनीति का सच । राजनीति की गंगा मैली होती जा रही है और कीचड़ बढ़ता जा रहा है । दलदल बढ़ती जा रही है । कहां तक गिरेगा , कहां तक बढ़ेगा?
राजनीति में मूल्य , विचार , राजनीति धर्म और सब मूल्य और मान्यतायें लगातार खत्म हो रही हैं या धरातल में समाती जा रही हैं । अटल विहारी वाजपेयी जैसा कोई नेता नहीं रहा जो एक वोट खरीद कर सरकार बचाने की कोशिश न करता हो । खरीदी हुई सरकार, खरीदे हुए विधायक या सांसद या सभी जनप्रतिनिधि देश के संविधान की रक्षा कैसे और क्यों करेंगे जो खुद संविधान की धज्जियां उड़ाते हों ? क्या कोई उम्मीद बची है ?
वैसे तो उम्मीद पर आकाश टिका है और हमारा लोकतंत्र भी इसी उम्मीद से चल रहा है ।
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।