लघुकथा: विश्वास
वे हमारे पड़ोसी थे । महानगर के जीवन में सुबह दफ्तर के लिए जाते समय व लौटते समय जैसी दुआ सलाम होती , वैसी हम लोगों के बीच थी । कभी कभी हम सिर्फ स्कूटरों के साथ हाॅर्न बजाकर , सिर झुका रस्म निभा लेते ।
एक दिन दुआ सलाम और रस्म अदायगी से बढ़कर मुस्कुराते हुए वे मेरे पास आए और महानगर की औपचारिकता वश मिलने का समय मांगा । मैं उन्हें ड्राइंगरूम तक ले आया । उन्होंने बिना किसी भूमिका के एक विज्ञापन मेरे सामने रख दिया । मज़ेदार बात कि हमारे इतने बड़े कार्यालय में कोई पोस्ट निकली थी । और उनकी बेटी ने एप्लाई किया था । इसी कारण दुआ सलाम की लक्ष्मण रेखा पार कर मेरे सामने मुस्कुराते बैठे थे । वे मेरी प्रशंसा करते हुए कह रहे थे - हमें आप पर पूरा विश्वास है । आप हमारी बेटी के लिए कोशिश कीजिए । मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं इसके लिए पूरी कोशिश करूंगा । नाम और योग्यताएं नोट कर लीं ।
दूसरे दिन शाम को वे फिर हाजिर हुए । मैंने उन्हें प्रगति बता दी । संबंवित विभाग से मेरिट के आधार पर इंटरव्यू का न्यौता आ जाएगा । बेटी से कहिए कि तैयारी करे ।
- तैयारी ? किस बात की तैयारी ?
-इंटरव्यू की और किसकी ?
-देखिए मैं आपसे सीधी बात करने आया हूं कि संबंधित विभाग के अधिकारी को हम प्लीज करने को तैयार हैं । किसी भी कीमत पर । हमारी तैयारी पूरी है । आप मालूम कर लीजिएगा ।
मैं हैरान था चि कल तक उनका विश्वास मुझमें था और आज उनका विश्वास ....?
- कमलेश भारतीय