समाचार विश्लेषण/मुफ्त के वादों की राजनीति कहां ले जायेगी?
राजनीति में पिछले कुछ वर्षों से मुफ्त मुफ्त के वादों का बोलबाला है । यह मुफ्त मुफ्त के वादे देश को कहां ले जायेंगे ? क्या मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने से कहीं हम अपने पड़ोसी देशों श्रीलंका और पाकिस्तान के हश्र तक तो न पहुंच जायेंगे ?
-*कमलेश भारतीय
राजनीति में पिछले कुछ वर्षों से मुफ्त मुफ्त के वादों का बोलबाला है । यह मुफ्त मुफ्त के वादे देश को कहां ले जायेंगे ? क्या मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने से कहीं हम अपने पड़ोसी देशों श्रीलंका और पाकिस्तान के हश्र तक तो न पहुंच जायेंगे ? इस बात से हमारा सुप्रीम कोर्ट भी आशंकित है । तभी तो कहा कि योजनाओं और रेवड़ी बांटने में अंतर तो होना ही चाहिए । इससे पहले कि खजाना खाली हो जाये , जनकल्याण और मुफ्त के बीच संतुलन बनाना जरूरी है । असल में चुनाव के समय मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का मुद्दा उठाया गया है । यह भी मांग की गयी है कि ऐसा करने वाले दलों की मान्यता चुनाव आयोग रद्द कर दे । हालांकि कोर्ट ने इसे अलोकतांत्रिक कदम करार दिया और कहा कि यह विधायिका पर निर्भर है । हम एक जनकल्याणकारी राज्य हैं । यह विधायिका ने देखना है कि रेवड़ियों और जनकल्याणकारी योजनाओं में क्या और कितना अंतर है ?
आपको याद दिला दें कि आजकल मुफ्त का नारा देने में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल सबसे ज्यादा आगे हैं । मेट्रो में महिलाओं के फ्री सफर से लेकर बिजली बिलों में पंजाब में कुछ यूनिट तक की मुफ्त सप्लाई तक । वैसे जब अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो मुफ्त साइकिल और लैपटाॅप तक बांटने के लिए चर्चित रहे । हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने रक्षाबंधन पर एक दिन बहनों /महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा की घोषणा की , जिसे मनोहर लाल खट्टर सरकार ने भी जारी रखे हुए है । तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन का पांच रुपये का खाना भी देने का सपना दिखाने वाले कम नहीं हैं । चाहे अन्नदाता कितना कष्ट झेल रहा हो , उसकी या उसके आंदोलन की कोई परवाह नहीं ।
इस तरह मुफ्त का बोलबाला राजनीति में सर चढ़कर बोल रहा है । इसीलिए किसी भाजपा नेता ने टिप्पणी की कि पंजाब सरकार केंद्र से करोड़ों रुपये की योजनाएं लेकर मुफ्त बांटने के वादे पूरे करना चाहती है । यदि आप मुफ्त के वादे करते हो तो इसके लिए आर्थिक संसाधन भी खुद जुटाइए न कि केंद्र की ओर देखो । बात पते की है । मुफ्त का वादा ही क्यों ? कोई भी दल अपनी विचारधारा के बल पर चुनाव मैदान में क्यों न उतरे ? अपने विकास कार्यों के बल पर क्यों न उतरे ? उत्तर प्रदेश में दीपावली के आसपास पांच पांच किलो अनाज मुफ्त क्यों बांटा जाये ? यह मुफ्त के वादे सब राजनीतिक दल एक दूसरे से बढ़कर करने लगे हैं और यह कहां तक चलेंगे या इनकी कोई सीमा होगी ये अंतहीन दौड़ बन कर रह जायेगी यह मुफ्त की राजनीति ? समय रहते ही संभलने की जरूरत है ।
यदि मुफ्त ही बांटना है तो गरीबों को तिरंगा तो मुफ्त बाट दीजिए सरकार । वह भी राशन काट कर दिया जा रहा है । इतना तो इम्तिहान न लीजिए गरीब का । तिरंगे के प्रति सम्मान पैदा कीजिए लेकिन किसी को भूखा रखकर नहीं ।
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।