जो घर फूंके अपना, चले हमारे साथ
-कमलेश भारतीय
कबीर जयंती मनाई गयी । धूमधाम से । शान से शौकत से । एक फक्कड़ संत की जयंती मंत्रियों ने भी मनाई और संत्रियों ने भी । सबके हैं कबीर और कबीर को याद करना बहुत अच्छा है बशर्ते कि एक भी गुण ग्रहण कर लिया जाये ।
कबीर ने धर्मांधता और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपनी बात खुलेआम कही । बहुत विरोध भी सहना पड़ा पर वे डगमगाये नहीं । रुके नहीं । एक साधारण जुलाहे के घर पले बढ़े कबीर के बारे में किवंदती है कि कोई महिला समाज के डर से उन्हें एक ताल किनारे छोड़ आई थी और उधर से नीरू और नीमा पति पत्नी गुजर रहे थे । एक बच्चे के रोने की आवाज़ सुनी और उधर ही चल पड़े । देखा तो एक अभागा शिशु । गोद में उठाया , पुचकारा और घर ले आये । नाम रखा कबीर । जुलाहे का काम करते थे और वही काम कबीर को भी सिखाया पर कबीर की लौ ऊपर वाले के साथ लगी हुई थी तो कपड़ा बुनते बुनते भी ऊपर वाले के गुणगान में लगे रहते । जो समाज , जो ऊंच नीच देखते और अंधविश्वास में फंसे लोगों को देखते तो चोट किये बिना न रहते ।
पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़
ताते यह चक्की भली जो पीस खाये संसार ,,,,
कंकर पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाये
तां चढ़ि मुल्ला बांग दे , क्या बहरा हुआ खुदाये ,,,
ये भाषा और तेवर थे कबीर के , जिसे सहना बहुत मुश्किल था उस जमाने के लोगों के लिए । ऐसे आदमी को गुरु कैसे मिले रामानंद ?
बीच सीढ़ियों में लेट गये जिस रास्ते से रामानंद जी को आना था और वही हुआ जो कबीर चाहते थे । रामानंद का पांव उन पर पड़ गया और वे राम राम करते पीछे हटे और कबीर ने कहा कि मुझे मंत्र मिल गया गुरु जी । बिल्कुल एकलव्य की तरह मिले गुरु रामानंद । बहुत प्रहार झेले इस अंधविश्वासों से भरे समाज के पर जरा नहीं डिगे कबीर सारी ज़िंदगी ।
बेशक कागज़ कलम छुओ नहीं, कलम गहि नहीं हाथ पर जो बोला सच बोला । इसीलिए वे कहते थे -तू कहता कागद की देखी , मैं कहता आंखिन की देखी । कागद मतलब ग्रंथ , पुराण और आंखिन देखी यानी अपने अनुभव से कहना। जाहिर है कि इसीलिए कबीर वाणी दिल में उतर गयी और ऐसी उतरी कि आज सदियों बाद भी गूंजती है और अपने संदेश देती है ।
ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होये का संदेश आज भी मधुर है । कितने दोहे और कितने संदेश ।
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े काकू लागूं पाये
बलिहारी गुरु आपने जिन गोबिंद दियो मिलाये ,,,,
गुरु की ऐसी महिमा आज तक गुणगान है और शिक्षक दिवस पर हर बार याद आती है ।
पर क्या हमने कबीर के संदेश को रत्ती भर भी ग्रहण किया ? यदि किया होता तो कभी गणेश जी दूध पी सकते हैं ? कभी कोई स्टोव भी देवता हो सकता है ? कभी करोड़ों करोड़ों की सम्पत्ति वाले बाबा हमारा भला कर सकते हैं और हम आंख मूंद कर इनका विश्वास कैसे कर लेते हैं ? यह हमारा देश ही है जहां पहले ही देवी देवताओं की कमी नहीं , ऊपर से ये ढोंगी बाबाओं का खेल जिसमें आम जनता पूरा पूरा साथ देती है । बताइए जिस जेल में कोई संत है भी नहीं , उस जेल की ओर दंडवत् प्रणाम किसे कर रहे हो भाई ? एक संत से धोखा खाकर फिर कोई दूसरा संत खोजने क्यों निकल पड़ते हो ? जो आपके मन में और आपकी आत्मा में है, उसे कहां हिरण की तरह जंगल जंगल खोजते फिरते हो ?
वैसे पहली बार ध्यान गया कि पत्रकारों को कबीर की बात पर चलना चाहिए :
जो घर फूंके अपना चले हमारे साथ ।
पत्रकारों को भी अपने घर की बजाय समाज की चिंता होनी चाहिए नहीं तो जैसी पत्रकारिता आ गयी है और जहां आ पहुंची है वहां से आगे सिर्फ खाई ही है । इसलिए कबीर की वाणी को ग्रहण कीजिए । सिर्फ जयंती मनाकर ही न भूल जाइए और न कबीर आश्रम या मठ बनाने की जरूरत ।
करनी ऐसी कीजिए
आप हंसो जग रोये ...