सांस लेना क्यों हो रहा दूभर? 

सांस लेना क्यों हो रहा दूभर? 

-*कमलेश भारतीय
आज हम सबका सांस लेना दूभर क्यों होता जा रहा है? आखिर पृथ्वी और इसकी प्रकृति का इतना दोहन हमने कर लिया कि अब प्रकृति ही हमसे रूठ गयी । बार बार यह कहा और सुनता आ रहा हूं कि पृथ्वी और प्रकृति मनुष्य की ज़रूरतें तो पूरी कर सकती हैं लेकिन लालच पूरा नहीं कर सकतीं ।आखिरकार यही हुआ कि प्रकृति जब मनुष्य के लोभ से तंग आ गयी तब इसने भी अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया । बद्रीनाथ का बड़ा वीभत्स कांड कोई कैसे भूल सकता है? कैसे खिलौनों की तरह मकान, गाड़ियां और सब कुछ पानी के साथ बहता देखा । हिमाचल, उत्तराखंड में जंगल, पेड़ पौधे और हरियाली दिन प्रतिदिन घटते जा रहे हैं और उनकी जगह कंक्रीट का जंगल‌ उगता, फैलता और फूलता जा रहा है । 
अभी स्माॅग से प्रदूषण इतना बढ़ गया दिल्ली में कि सरकार ने कृत्रिम बारिश करवाने की अनुमति मांगी है । वैसे स्माॅग से सिर्फ दिल्लीवासी ही परेशान नहीं हैं बल्कि पंजाब, हरियाणा भी इसकी चपेट में आये हुए हैं । चारों तरफ हाहाकार मची है और दोषी मनुष्य ही अपना दोष प्रकृति के ऊपर मढ़ रहा है । इसे कहते हैं कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे ! खुद तो खेतों में पराली जलाकर प्रदूषण असंतुलित करे और दोष मौसम पर लगाये! ऐसा दोष लगाने से पहले अपने गिरेबान में क्यों नहीं झांकता यह मनुष्य । पेड़ काटे, कंक्रीट के जंगल बनाये तब नहीं सोचा कि क्या भविष्य होगा हमारी आने वाली पीढ़ी का ? न शुद्ध पानी रहने दिया, न ताज़ा हवा रहने दी नयी पीढ़ी के लिए । मिनरल वाटर बिक रहे हैं धडल्ले से! पानी भी एक बड़ा उद्योग यानी काम बन गया । पौधारोपण अब महोत्सव बन गया । यह सब भी अब प्रदूषण से बचाने के लिए नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं । कभी हम एक पौधा मां के नाम तो कभी पित्तरों के नाम लगाने के अभियान चलाकर वाहवाही लूटते हैं और अपनी पीठ थपथपाते हैं लेकिन पेड़ काटने से बाज भी नहीं आते। पहाड़ों पर नये नये बड़े बड़े प्रोजेक्ट, आलीशान भवन बनते दिखाई दे रहे हैं, फिर प्रदूषण का रोना किसके लिए ? अपना दोष दूसरों पर क्यों? मंथन करो, विचार करो ! एक शेर से बात समाप्त करता हूं : 
जो इक घर बनाओ तो इक पेड़ लगा लेना
परिंदे सारे घर में चहचहायेंगे ! 

-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।