व्यंग्य/यह भी एक कला है -टरकाना/ कमलेश भारतीय
हम सब शब्दों के जादूगर हैं ।
किसी भलेमानस ने कहा था और मैंने विश्वास नहीं किया था । अब मैं कह रहा हूं और आपको भी विश्वास नहीं आ रहा होगा । पहली बार हम किसी बात पर विश्वास करते भी नहीं । फिर शब्दों की जादूगरी का दावा लेखक ही क्यों जताते हैं ? नहीं जनाब लेखकों का दावा खोखला ही नहीं पूरी तरह झूठा भी है । धीरे धीरे आपको भी इस बात पर यकीन आ जायेगा कि भाषा एक खेल है और हम सब शब्दों के खिलाड़ी हैं , शब्दों से खेलते हैं । हम सब शब्दों के जादूगर हैं । इस खेल , इस जादू का सबसे उत्तम उदाहरण , बेहद खूबसूरत उदाहरण , खेल खेल में , बातों बातों में दूसरों को टरकाना है ।
जी हां , टरकाना भी एक कला है ।
इस समाज में शायद ही कोई ऐसा प्राणी हो जिसे इस कला का प्रयोग न करना पड़ता हो । बच्चे से लेकर बूढ़े तक , नेता से लेकर अभिनेता तक , क्लर्क से लेकर बाॅस तक , दुकानदार से लेकर ग्राहक तक , जमींदार से लेकर मज़दूर तक , पति से लेकर पत्नी तक , स्वामी से लेकर सेवक तक , यहां तक कि संपादक से लेकर लेखक पाठक तक यानी हर वर्ग , हर जमात में टरकाने की कला का उपयोग किया जाता है । यह अलग बात है कि कोई भी कला मां के पेट से नहीं मिलती । हर कला को सीखने के लिए अभ्यास की जरूरत पड़ती है । हर कला के लिए अभ्यास पहली शर्त है । टरकाने के लिए जीभ का मुलायम उपयोग करना सीखना और भी जरूरी है ।
बच्चे इस कला को धीरे धीरे समझते हैं और फिर इसे सीखने में जुट जाते हैं । किसी आदमी से कोई उधार मांगने वाला आया । उसने अपने बाल गोपाल से कहा कि जा , जाकर कह दे कि पापा घर पर नहीं हैं । बस , बच्चा था । थोड़ी सी भूल हो गयी । आखिर जीभ हो तो थी , फिसल गयी । अभी अभ्यास भी न था । बेचारा टरकाने की कला से पूरी तरह नावाकिफ था । कह बैठा -पापा कह रहे हैं कि वे घर पर नहीं हैं ।
इसे आप कला नहीं कह सकते । हां , इसे टरकाने की कला में प्रवेश मान सकते हैं । इस कला के बादशाह हैं क्लर्क । क्लर्क किसी बादशाह से कम नहीं हैं । टरकाने की कला के उत्तम नमूने क्लर्कों के यहां मिलते हैं ।
-आपकी अर्जी ऊपर भेज दी गयी है ।
-आपकी फाइल चल रही है ।
-बस । बड़े साहब की चिड़िया यानी उनके साइन रहते हैं । बाकी सब हो चुका है ।
-बस काम हुआ ही समझो ।
ऐसे ही मिलते जुलते वाक्य क्लर्कों को उसी तरह रटे रहते हैं जैसे पंडितों को मंत्र । जब क्लर्क बादशाह किसी काम को डेफिनिटली हो जाने का वादा करे तो समझो वही काम नहीं होगा ।
क्लर्क बादशाह के बाद टरकाने की कला नेताओं के यहां सीखने को मिलती है । सब्जबाग दिखाना -नेताओं के बस की ही बात है । भूखे लोगों को रोटी का आश्वासन देना , कागजों पर योजनाएं चलाना , नहर कुयें खुदवाना आदि करिश्मे कर दिखाना नेताओं के बायें हाथ का खेल है । बड़े बड़े जुलूस जलसे जब ज्ञापन लेकर नेताओं के पास पहुंचते हैं , मुट्ठियां कसते हैं , नारे लगाते हैं तब लगता है कि आज इनको रोक पाना मुश्किल होगा पर धन्य धन्य इस कला के स्वामी जो इतने प्यार से , रसभरी बातों से , भीड़ को टरकाते हैं कि वही भीड़ मदारी के इशारे पर नाचने वाली बंदरिया की तरह मंत्रमुग्ध हुई मांगों के नारे लगाना भूल कर नेता के जिंदाबाद के नारे लगाना शुरू कर देती है । हालांकि घर लौट कर वही भीड़ सोचती है कि उसकी मांगों को बड़ी चालाकी से टरका दिया गया है ।
लेखकों व नेताओं के बाद बड़े साहबों को भी टरकाने की कला के उस्ताद माना जा सकता है । बड़े साहबों को भी बड़े बड़े फोन दिन रात परेशान करते रहते हैं । उन्हें भी इस कला का सहारा लेना पड़ता है । टेलीफोन का ग्रिप निकाल कर या मोबाइल को स्विच ऑफ कर साहब चैन की बंसी बजाते हैं और रातों को खर्राटे लेते हैं । कभी आमना सामना हो जाने पर बड़े भोले बन कर धीमे से इतना ही कह देते हैं -क्या करें , फोन चार्जिंग पर लगा था या खराब था । फोन विभाग या नेटवर्क पर गुस्सा जाहिर करेंगे । वे आपको अपने दुख में दुखी कर लेते हैं ।
इस संबंध में एक रोचक प्रसंग पुराने समय से प्रचलित है ।
-हैलो ।
-हैलो । हैलो । क्या बात है ?
-बस । कृपा है आपकी ।
-बताइए ।
-आपसे एक विनती है ।
-कहिए ।
-मुझे पांच हज़ार रुपये की जरूरत है । आप दे देंगे कुछ दिन बाद लौटा दूंगा ।
-ज़रा ऊंचा बोलिए । सुनाई नहीं दे रहा ।
दो तीन बार जब यही हुआ तो पुराने जमाने के ऑपरेटर ने कहा कि आवाज़ तो साफ सुनाई दे रही है तो टरकाने वाले ने चिढ़ कर कहा कि आपको सुनाई दे रही है तो आप ही पांच हजार रुपये दे दो । आजकल बीच में ऑपरेटर होता नहीं तो फोन खराब हो गया कह कर बंद कर देते हैं ।
महिला अधिकारियों के पास टरकाने के लिए इतना कहलवाना ही काफी है कि बाथरूम गयी हैं या नहा रही हैं । अब आप सोचिए कि इस नहाने में मेकअप भी शामिल है । टरकाना और किसे कहते हैं ।
टकराने के कुछ नमूने दर्जियों के यहां भी मिलते हैं । ब्याह शादियों के दिनों में दर्जियों की शामत आ जाती है । काम पर काम । ग्राहक पर ग्राहक । बस , अब सच बोलने से ग्राहक टूटने का डर रहता है । तो टरकाने की कला ही काम आती है ।
-बस । अब सूट काट कर कारीगर को दे दिया है ।
-अब बटन लगाने बाकी हैं ।
-अब तिरपाई हो रही है ।
- अब प्रेस करने भेज रखा है ।
-क्या करें कारीगर बीमार है ।
यानी इतने प्रेम से शायद शाहजहां ने ताजमहल न बनवाया होगा जितने प्रेम से दर्जी आपका सूट बनाने में जुटा है ।
हमारे संपादक भी लेखकों को टरकाने में लगे रहते हैं । रचना को खेद सहित इतने प्रेम से लौटाते हैं कि लेखक को कोई मानसिक कष्ट न हो और लेखन कला भी प्रभावित न हो । रचना के साथ रंगीनषचिट नत्थी कर देते हैं , जिस पर छपा होता है -आपकी रचना मिली । धन्यवाद । खेद है कि हम इसका उपयोग करने में असमर्थ हैं । आप इसका अन्यत्र उपयोग कर सकें इसलिए लौटा रहे हैं । आशा है शीघ्र ही आपकी कोई सशक्त रचना मिलेगी ।
लोकगीत भी टरकाने की कला के नमूने पेश करते हैं । किसान किस प्रकार अपनी भोली भाली पत्नी को फसल दर फसल टकराता है , इसका उदाहरण देते हुए पेश है :
तेरी चन्नी नूं लवा देऊं गोटा
हाड़ी नूं घर आ लैणदे
हाय नीं जिंद मेरिए,,,
तेनूं सवा देऊं सूट नसवारी
नरमे नूं बिक लैणदे
हाय नी जिंद मेरिए,,
गांवों में किसान की पत्नी हाड़ी सौनी के चक्कर में कब नसवारी सूट और गोटे वाली चुन्नी ले पाती है ? यह किसी से छिपा नहीं है । पंजाबी में कहावत भी है -तेरे लारे , मुंडे रह गये कुंवारे । और किसी फिल्म का गीत भी है :
अड्डी टप्पा अड्डी टप्पा लाई रखदा
लारा लप्पा लारा लप्पा लाई रखदा,,,
फिल्म अभिनेत्रियां भी डेट्स नहीं हैं या मूड नहीं है , कह कर निर्माता के लाखों रुपये के सेट को बेकार कर देती हैं । निर्माता सिर धुनता रह जाता है ।
जब टरकाने की कला की इतनी महत्ता व उपयोगिता है तो क्यों न विश्वविद्यालयों में एक कोर्स के रूप में इसका पाठ्यक्रम शुरू किया जाये ? यहां भी कैच देम यंग का नारा लगाया जाये । इस कला का नाम सोशोलोजी और साइकोलोजी की तर्ज पर टरकोलोजी रखा जाए । अगर ऐसा न किया गया तो यह कला लुप्त हो जाने का डर है । इसके संरक्षण हेतु टरकोलोजी इंस्टिट्यूट बनवायें । अध्यक्ष मत ढूंढना । मैं हूं ....