लघुकथा/यह घर किसका है?
अपनी धरती , अपने लोग थे । यहां तक कि बरसों पहले छूटा हुआ घर भी वही था । वह औरत बड़ी हसरत से अपने पुरखों के मकान को देख रही थी । ईंट ईंट को , ज़र्रे ज़र्रे को आंखों ही आंखों में चूम रही थी । दुआएं मांग रही थी कि पुरखों का घर इसी तरह सीना ताने , सिर उठाये , शान से खड़ा रहे ।
उसके ज़हन में घर का नक्शा एक प्रकार से खुदा हुआ था । बरसों की धूल भी उस नक्शे पर जम नहीं पाई थी । कदम कदम रखते रखते जैसे वह बरसों पहले के हालात में पहुंच गयी । यहां बच्चे किलकारियां भरते थे । किलकारियों की आवाज साफ सुनाई देने लगीं । वह भी मुस्करा दी । फिर एकाएक चीख पुकार मच उठी । जन्नत जैसा घर जहन्नुम में बदल गया ।परेशान हाल औरत ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और आसमान की ओर मुंह उठा कर बोली-या अल्लाह रहम कर । साथ खडी घर की औरत ने सहम कर पूछा-क्या हुआ ?
- कुछ नहीं ।
- कुछ तो है । आप फरमाइए ।
- इस घर से बंटवारे की बदबू फिर उठ रही है । कहीं फिर नफरत की आग सुलग रही है । अफवाहों का धुआं छाया हुआ है । कभी यह घर मेरा था । एक मुसलमान औरत का । आज तुम्हारा है । कल ...कल यह घर किसका होगा ? इस घर में कभी हिंदू रहते हैं तो कभी मुसलमान । अंधेर साईं का , कहर खुदा का । इस घर में इंसान कब बसेंगे???
-कमलेश भारतीय